ये हैं विजय कुमार, सेना की महू में स्थित इंफ़्रेंट्री स्कूल की आर्मी मार्क्समैनशिप यूनिट के नायब सूबेदार, जिन्होंने दोहा एशियाड में 25 मीटर सेंटर फ़ायर पिस्टल स्पर्धा में समरेशजंग और यशपाल राणा के साथ टीम का स्वर्ण जीता था। इनके इंदौर आगमन पर इनकी अगवानी इस प्रकार हुई। (हम इंदौरवासी इसके लिए शर्मिंदा हैं) इनके लिए किसी भी खेल अधिकारी, प्रादेशिक खेल मंत्री, पक्ष-विपक्ष के किसी भी नेता ने स्टेशन तक आने का कष्ट नहीं उठाया। हालाँकि ऐसा कोई प्रोटोकॉल नहीं है, परंतु यदि यह किसी नेता का आगमन होता तो क्या ऐसा होता? वैसे नेताओं की बात पिछली पोस्ट में हो चुकी है, मैं कहना चाहता हूँ कि यदि विजय कुमार की जगह कोई क्रिकेट खिलाड़ी कोई कप, ट्रॉफ़ी या मैच जीत कर आया होता तो भी क्या ऐसा होता? क्रिकेट खिलाड़ियों को हमने भगवान मान लिया है। वे कैसा भी प्रदर्शन करते रहें, हम उन्हें कुछ दिन कोस कर फिर उन्हीं के गुणगान करते नज़र आएँगे। क्रिकेट के खेल में यदि ख़राब प्रदर्शन होता है तो भारत की जनता ऐसा व्यवहार करती है जैसे देश का भविष्य अंधकारमय हो गया हो और यदि कोई जीत हुई है तो पूरे देश में दीवानगी की सारी हदें पार हो जातीं हैं। मुझे याद है जब 1999 में देश ने कारगिल संकट का सामना किया था उसी समय क्रिकेट विश्व कप भी चल रहा था। जब तक मैच चलते रहे तब तक देश के जवानों ने सरहद के जवानों की कोई ख़बर नहीं ली जैसे ही फ़ाइनल मैच का समापन हुआ तो लगा कि कुछ देशभक्ति का काम भी कर लें, और फिर देश भर में पाक विरोधी प्रदर्शनों का तांता लग गया। जो जितने जोर से नारा लगाता उसकी देशभक्ति उतनी अधिक और सशक्त। इस खेल की लोकप्रियता ऐसी है कि देश के हर गली-मोहल्ले में बच्चे मोगरी (या मुंगरी जिससे कपड़े कूट कर धोए जाते हैं, यह क्रिकेट बैट जैसी ही होती है) लेकर स्वयं को सचिन, सौरव या सहवाग से कम नहीं समझते। विकेट के लिए कोई सायकल खड़ी कर ली जाती है, या फिर दीवार पर कोयले से विकेट बना लिए जाएँ तो विकेट कीपिंग की भी ज़रूरत नहीं। गेंद के पीछे दौड़ते बच्चे इधर-उधर कुछ नहीं देखते और किसी स्कूटर चालक से टकरा जाते हैं, अब ग़लती किसी की भी हो देश की युवाशक्ति स्कूटर चालक की ही पिटाई करती है। क्रिकेट के लिए ही हमारे सांसदों को भी दु:ख होता है (दूसरे खेलों की कोई चिंता नहीं), इस पर कोच ग्रेग चैपल कह देते हैं कि भई इन्हें तो प्रश्नकाल में प्रश्न उठाने के लिए पैसा मिलता है। ग़लत भी क्या है जब हम यह सब जानते हैं तो चैपल साहब को भी यह जानकारी तो होगी ही।
यहाँ बात किसी भी प्रकार से क्रिकेट या क्रिकेट खिलाड़ियों के विरोध की नहीं है। मुद्दा यह है कि यदि इतना ही ख़याल हमने दूसरे खेल और खिलाड़ियों का रखा होता तो हम किसी भी एशियाड या ओलंपिक में गिन-चुने 10-15 पदक लेकर नहीं लौटते। एशियाड में फिर भी पदक तालिका में भारत का नाम प्रथम देशों आ जाता है, परंतु ओलंपिक में कभी कभी एक कांस्य पदक के भी लाले पड़ जाते हैं। एक अरब की आबादी वाले देश के लिए यह बड़े ही शर्म की बात है। एशियाड में केवल चीन ही क्षेत्रफल और जनसंख्या में हमसे बड़ा देश था। बाकी देश ऐसे थे कि सब मिलकर भी भारत और भारतवासियों के बराबर नहीं हो सकते। छोटा सा जापान हमसे कहीं आगे होता है। क्रिकेट टीम के एक एक खिलाड़ी की पूरी कुंडली सभी को मुँहज़बानी याद रहती है, परंतु भारतीय कबड्डी टीम के किसी खिलाड़ी का नाम शायद ही कोई बता सके या कोनेरु हंपी कौन है ये शायद ही तथाकथित क्रिकेट प्रेमियों को मालूम हो (अपवाद हो सकते हैं)। ऐसा नहीं है कि देश में प्रतिभाओं की कमी है। हमारे देश में बुधिया जैसे बच्चे भी हैं (यद्यपि यह अमानवीय है)। इस एक बुधिया को इतना मीडिया कवरेज भी संभवत: प्रशिक्षक की प्रसिद्धि पाने की लालसा से मिला। अन्यथा ऐसे कितने ही बालक-बालिकाओं की प्रतिभा विद्यालयों में खेल शिक्षकों, बाद में प्रशिक्षकों, अधिकारियों, नेताओं के दुष्चक्र में खो जाती है। क्या कभी हम निजी स्वार्थ से ऊपर उठ कर उचित व्यक्ति को प्रशिक्षित कर उसे खेल आयोजनों में भेजेंगे? क्या हम कभी क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों के खिलाड़ियों को भी देश का हीरो समझेंगें? क्या हम दूसरे खिलाड़ियों को भी उतना प्रेम और सम्मान देंगें जो हम क्रिकेट खिलाड़ियों को देते आए हैं? आखिर ये भी तो हमारे देश का नाम रोशन करते हैं, क्या आपको नहीं लगता?
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