धुरविरोधीजी आपने सही लिखा है फिर भी यहाँ चीखने चिल्लाने से न तो मोदी का कुछ होना है, न चन्द्रमोहन का, न एम.एफ़: हुसेन का और ना ही आप जिन्हें समझा रहे हैं उन्हें कुछ असर होना है। गुजरात के नाम से चिल्लाने वाले क्या नहीं जानते हैं कि हिन्दी भाषी राज्यों की क्या हालत है। इन्दौर से कभी पटना, इलाहाबाद दिल्ली जाना होता है तो इन राज्यों की सीमा में जाते ही रेलों पर गुंडों का राज हो जाता है। उसके बारे में कोई नहीं बोलता। रिजर्वेशन हो तो भी रात के समय सोते हुए लोगों को उठा दिया जाता है। महिलाओं से भी बदतमीजी की जाती है। भाई लोगों गुजरात में यह सब नहीं होता फिर भी वहाँ की जनता और प्रशासन को ही कोसा जाता है।
अब इतने लंबे समय के बाद मुझे लगता है हमें क्या मिलेगा इस सबसे। हम चंद लोग नेट पर टीका टिप्पणी करते रहते हैं। मेरे मित्रों में केवल एक है जो इंटरनेट जानता और समझता है क्योंकि वह सॉफ़्टवेयर के क्षेत्र में है परंतु वह भी हिन्दी ब्लॉग के बारे में तब तक नहीं जानता था जब तक कि मैंने उसे नहीं बता दिया। करोड़ों लोग कम्प्यूटर और इंटरनेट के बारे में नहीं जानते, तो हम चंद लोग यहाँ क्या आरोप प्रत्यारोप कर रहे हैं किसी को कुछ नहीं पता। कितना कीमती समय नष्ट किया हम सभी ने अपना सबका। 22 मार्च को विश्व जल दिवस निकल गया किसी ने कोई बात नहीं की सबके सब बेपानी हो गए। एक हिन्दू धर्म और हिन्दू जनता ही सुधारने को बच गई है(?) और तो कोई समस्या है ही नहीं इस देश में। एक गुजरात ही बच गया है देश में सुधारने के लिए बाकी जगह तो प्रेम की गंगा बह रही है।
मातृ दिवस पर सभी ने माँ के लिए पोस्ट लिखी परंतु भाईयो धरती माँ को भी याद कर लेते। यही सोच लेते कि चलो पानी ही बचा लें, धरती का भी और आँखों का भी। परन्तु यहाँ तो लोगों का खून जलाने की बातें होतीं हैं। चिट्ठाजगत का ध्रुवीकरण तो हो ही गया है। मुझे ऐसा लगता है कि बुजुर्गजन चाहते तो समय रहते रोक सकते थे। जब बच्चे लड़ते हैं तो बड़े बुजुर्ग ही उन्हें समझाते हैं। पर यहाँ तो कहा जा रहा है कि हर बच्चे को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर चन्द्रमोहन स्त्री का नग्न चित्र बनाए जिसमें उसे प्रसव होता दिखाए और कहे कि दुर्गा माता है। ज्ञानदत्तजी पाण्डेय के ब्लॉग पर इस खबर की लिंक हैं। एम. एफ़. हुसैन ने जो बनाया उसे तो यहाँ सार्वजनिक रूप से मैं लिख कर भी नहीं बता सकता हूँ। मैंने देखा है तभी कह रहा हूँ।
ये लोग जिन लोगों ने हिन्दी में चिट्ठे लिखने की शुरुआत की (भले ही वे पाँच सात लोग थे) वे सोचते थे कि इंटरनेट पर वे इंटरनेट पर हिन्दी की सामग्री उतनी ही सरलता से उपलब्ध हो जितनी कि अन्य भाषाओं की मिलती है, ताकि जब लोग हिन्दी में सर्च करें तो उन्हें हिन्दी में भी संबंधित सामग्री पढ़ने को मिले। हिन्दी विकी का भी यही उद्देश्य था। इसके अलावा जनता को चिट्ठों पर भी सामान्य, गंभीर दोनों किस्म का लेखन मिले तो ही हमारा लेखन सार्थक होगा। परंतु जब कोई खोजते हुए यहाँ आएगा तो देखेगा कि यहाँ लोग एक दूसरे की कुत्ताफजीती (हिन्दी का शब्द है कोई अन्यथा न ले) कर रहे हैं तो क्या सोचेगा। आम चलताऊ भाषा से लेकर गंभीर भाषा और गंभीर किस्म के विरोध चल रहे हैं जिनका कोई औचित्य मुझे नज़र नहीं आता।
हम आने आने वाली पीढ़ी को क्या देने वाले हैं। हिन्दी ब्लॉगजगत में भी अच्छे लेखन की खुशबू से ज्यादा बारूद की गंध आती है अब। कई बार लगता है कि अच्छा तो यह है कि नारद मुनि के दर्शन ही नहीं किए जाएँ तो अच्छा है। अपना चिट्ठा लिखो और खुश रहो, फिर उसे कोई पढ़े या ना पढ़े। जिन लोगों की लेखनी अच्छी लगती है उनके लिंक अपने चिट्ठे में लगा लिए जाएँ। भला होगा यदि चार पोस्ट या टिप्पणी न लिख कर अपनी कालोनी में चार घरों के सामने चार पेड़ ही लगा लूँ तो अच्छा है। कुछ लोगों को बारिश का पानी सहेजने के लिए मना लूँ तो अच्छा है।
लानत है हम सब पढ़ लिखों पर नहीं मुझ पर-अपनेआप पर, इससे अच्छी मालवा के गाँव (जहाँ रहता हूँ वहीं का लिखूँगा ना) की अपनढ़ सईदा चाची है जो शुद्ध मालवी बोली में कहती हैं, ‘पोर बिलकिस के परणई दी है’ (पिछले वर्ष बिलकिस का विवाह कर दिया है) और तारा काकी जवाब देतीं हैं,’घणो हारु करयो’ (बहुत अच्छा किया)। इनकी बोली से इनके सम्प्रदाय का पता नहीं चलता और न ही इस बात पर ये कुछ सोचतीं हैं। यही खासियत है हिन्दुस्तान की। इन दोनों को एक दूसरे से कोई भय नहीं है और सईदा चाची को गुजरात या मोदी से कोई मतलब नहीं है। भला है गाँवों में मोहल्ले नहीं होते।
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