सोहराबुद्दीन एनकाउंटर को लेकर जो शब्द सभी धर्मनिरपेक्ष और मानव अधिकार वाले उपयोग में ला रहे हैं वह है हिन्दु तालिबानी। हिन्दुत्व के नाम का स्यापा करने वाले यह भी जान लें कि इस एनकाउंटर में सोहराबुद्दीन और कौसर बी के साथ जिस तीसरे व्यक्ति को मारा गया उसका नाम तुलसी प्रजापत था। मीडिया ने इस नाम को उजागर क्यों नहीं किया। सोहराबुद्दीन मध्यप्रदेश का हिस्ट्रीशीटर था और उज्जैन जिले के झिरन्या गाँव में मिले एके 47 और अन्य हथियारों में इसी का हाथ था। सोहराबुद्दीन के संपर्क छोटा दाउद उर्फ शरीफ खान से थे जो अहमदाबाद से कराची चला गया था। इसी शरीफ खान के लिए सोहराबुद्दीन मार्बल व्यापारियों से हफ्ता वसूल करता था। इस एनकाउंटर के पीछे सोहराबुद्दीन से त्रस्त व्यापारी भी माते जाते हैं। यह एक आपराधिक घटनाक्रम था जिसमें एक अपराधी को पुलिस ने मार गिराया। इस घटना को कितनी आसानी मीडिया ने धर्म का चोला पहना दिया। एक मुसलमान नहीं मारा गया बल्कि एक अपराधी मारा गया है। इसके साथ तुलसी भी मरा है। सोहराबुद्दीन, तुलसी और पुलिस तो परिदृश्य में नज़र आने वाली कठपुतलियाँ हैं इनको चलाने वाले हाथ उस पर्दे की पीछे हैं जो राजनीति और माफिया के नाते ताने से बुना गया है। नेपथ्य में जो भी है शायद मीडिया जानता भी होगा तो सामने नहीं लाएगा।
सोहराबुद्दीन के साथ मारा गया तुलसी प्रजापत कुख्यात शूटर था। किसी समय ठेले पर सब्जी बेचने वाला तुलसी कभी कभी पैसों के लिए छोटी-मोटी चोरियाँ भी कर लिया करता था। धीरे-धीरे इसने लूट, नकबजनी, डकैतियों को भी अंजाम देना शुरु कर दिया। बाद में यह शूटर बन गया, यह एक ही गोली में व्यक्ति का काम तमाम कर देता था। यह भी उज्जैन का हिस्ट्रीशीटर था। उज्जैन की भैरवगढ़ जेल में तुलसी की मुलाकात राजू से हुई। राजू छोटा दाउद उर्फ शरीफ खान के लिए काम करता था। राजू ने ही तुलसी की दोस्ती सोहराबुद्दीन के साथी लतीफ से कराई थी। यह वही अब्दुल लतीफ है जिसने अहमदाबाद में सायरा के जरिए ट्रक से हथियार झिरन्या (उज्जैन) पहुँचाए थे।
सोहराबुद्दीन मध्यप्रदेश के उज्जैन जिले के झिरन्या गाँव का रहने वाला था। पारिवारिक पृष्ठभूमि अच्छी थी परंतु तमन्ना थी ट्रक ड्राइवर बनने की, इसी के चलते वह 1990 में इन्दौर के आशा-ज्योति ट्रांसपोर्ट पर ट्रक क्लीनर का काम करने लगा। सन 1994 में अहमदाबाद की सायरा नामक महिला ने एके 47 मध्यप्रदेश के लिए रवाना की थी और इस ट्रक का ड्राइवर उज्जैन जिले के महिदपुर का पप्पू पठान था और सहयोगी ड्राइवर सोहराबुद्दीन था। इस ट्रक का क्लीनर सारंगपुर का अकरम था। जब सायरा अहमदाबाद में पकड़ी गई तो उसने पप्पू के ट्रक में हथियार पहुँचाने की बात कबूली। पप्पू के पकड़े जाने पर अहमदाबाद पुलिस ने जाल बिछाया और सोहराबुद्दीन को जयपुर में पकड़ा। सोहराबुद्दीन के पास से सिक्स राउंड पिस्टल भी बरामद हुई थी जो कि मध्यप्रदेश मंदसौर के गौरखेड़ी गाँव से कासम से खरीदी गई थी। सायरा को अब्दुल लतीफ ने हथियार दिए थे। लतीफ के साथ ही सोहराबुद्दीन की पहचान समीम, पठान आदि माफियाओं से हुई थी। बाबरी ढाँचे के गिरने के बाद लतीफ ने ही छोटा दाउद उर्फ शरीफ खान से कराची से हथियार बुलवाए थे। शरीफ खान के कहने पर ही सोहराबुद्दीन ने रउफ के साथ मिल कर अमहमदाबाद के दरियापुर से हथियारों को झिरन्या पहुँचाया था। यहाँ पर हथियारों को कुएँ में छुपा दिया गया था। इस मामले में पप्पू और सोहराब सहित 100 लोगों पर अपराध कायम किया गया था। यह उसी समय की बात है जब संजय दत्त को हथियार रखने के अपराध में गिरफ्तार किया गया था। उसी समय झिरन्या कांड भी बहुत चर्चित हुआ था। यदि आप पुराने 94 के अखबारों में खोजेंगे तो झिरन्या हथियार कांड के बारे में मिल जाएगा।
मैं मालवा अंचल के बारे में आपको बताना चाहूँगा कि यह बहुत ही शांत क्षेत्र है और इसीलिए इस अंचल का उपयोग माफिया लोग फरारी काटने या अंडरग्राउंड होने के लिए करते हैं, यहाँ पर ये लोग वारदात करते क्योंकि ये अपराधियों की पनाहगाह है। अपराधी यहाँ अपराध इसलिए नहीं करते कि यहाँ पर कोई भी वारदात होने से यह जगह भी पुलिस की नज़रों और निशाने पर आ जाएगी। मालवा छुपने के लिए बहुत ही मुफीद जगह है। यहाँ की शांति की वजह से यहाँ पर पुलिस की सरगर्मियाँ भी दूसरे राज्यों के मुकाबले कम रहतीं हैं। अन्य राज्यों के फरार सिमी कार्यकर्ता भी यहीं से पकड़े गए हैं। सोहराबुद्दीन ने भी इन्दौर में छ: माह तक फरारी काटी थी।
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अब भैया ये तो सच हजम होने वाली बात नही ,न टिपीयाने वाली ,काहे कॊ की अगर यहा टिपिया दिये तो धर्म निरपेक्षता और वो क्या कहये है पत्रकार निरपेक्षता खतरे मे आ जायेगी और आप भी हमारी तरह यहा का फ़ार्मूला है हिन्दूओ के लिये अस्त्यं ब्रूयात. बाकी के लिये प्रियम ब्रूयात ,आप हिन्दी मे ऐसे समझ सकते है जो सत्य धर्म निरपेक्षता की कसौटी पर खरा न उतरे न सोचे न लिखे न पढे और यहा हिन्दू का मतलब इनके हिसाब से तालीबानी है सत्य और न्याय अगर हिन्दू के फ़ेवर मे है तो वह धर्म निरपेक्ष नही है
अभी कुछेक महिनो पहले मुम्बई की एक महिला आतंक्वादी गुजरात मे मारी गई थी,जिसके समर्थन मे सारा मीडीया और राज नैतिक दल आ गये थे
इन्होने उस के घर जाकर लाखो की सहायता भी की
और मोदी की लानत मलानत भी की जब आतकंवादियो ने अपनी वेब साईट पर उसे शहीद करार दिया तो सब को साप सूघ गया फ़िर किसी ने स्त्य को दिखाने की कोशिश नही की
सही लिखा है.
अतुल जी, पुलिस ने जो किया वह एक अलग बात है किन्तु इस प्रकार से चुन चुन कर समाचारों को उछालना, एक नाम की ही बात करना,एक की नहीं करना,व फिर उसे एक धार्मिक रंग देना,
यह हमारी अपरिपक्वता ही दर्शाता है । प्रश्न तालीबानी होने का नहीं है प्रश्न यह है कि जो हुआ वह गलत था या सही । क्या हमारी अदालतें व सरकारी तंत्र ऐसा हो गया है कि पुलिस को न्याय भी अपने हाथ में लेना पड़ेगा ?
घुघूती बासूती
एसी ही बात सुरेश चिपलूनकर ने लिखी थी. अतुल जी, गुण्डों का कोई धर्म नहीं होता. अगर मोदी के राज्य में हो तो बहुत बुरा.
अब तो लोगों ने इन पर विश्वास करना भी बन्द कर दिया है.
वाह अतुल जी, सब की पोल खोल दी आपने। अब भी जो लोग इनका पक्ष ले रहे हैं शर्म आनी चाहिए उन्हें।
मैं मात्र यह बताना चाहता हूँ कि हर बात को लेकर मीडिया और लोग गुजरात, मोदी और संघ, विहिप को कोसने लग जाते हैं। जबकि असलियत कुछ और भी हो सकती है। मैंने केवल सोहराबुद्दीन के बारे में लिखा परंतु सुरेशजी चिपलूनकर ने सोहराब और गंगाजल में पुलिस की मनस्थिति के बारे में बेहतर ढंग से बताया है.
मै आपसे असहमत हु.
१. माना कि वो आपराधी था, तो गिरप्तार करते.. इस देश का कानुन है…
२. आपने कौसर का जिक्र नहीं किया…
३. गुजरात सरकार ने क्यों कहा कि ये एनकाउन्टर है.. .. क्यों ये नहीं कहा की वो अपरधी था.. गिरप्तार करने गये.. cross fire हुआ.. मारा गया…
मुझे लगता है कि बात और भी गहरी है…. इतनी आसान नहीं.. जितना आप लिख रहे है..
रंजन
सुप्रीम कोर्ट में साबित कर लेते कि सोहराबुद्दीन आतंकवादी था. क्यों नहीं किया? क्यों गुजरात की सरकार झेंप गई. क्यों सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फ़ैसले को सही मानते हुए सोहराबुद्दीने के माथे पर लगा दाग़ मिटा दिया? बाक़ी बातें तो मीडिया के किए ट्रीटमेंट को लेकर है. वो आरोप प्रत्यारोप लगते रहते हैं. उन पर अलग बहस हो तो समझ आए. किंतु गुजरात सरकार के बचाव में क्या तर्क है. क्या सरकार का प्रशासन ऐसा होगा कि बरसों तक तीन तीन आईपीएस अफ़सरान को बचाने के लिए पूरा तंत्र बेशर्म हो जाएगा?
आपने जो जीवन परिचय छापा है वो किसी मीडिया से लिया होगा. नई दुनिया के पुराने अंक मेरे पास हैं जब सोहराबुद्दीन मारा गया था. उसे भी उठाकर देखें. जितना ज्ञान सेकुलरवादियों को गाली देने में झाड़ा जा रहा है वो सारा कोर्ट में दे दिया होता तो सोहराबु्द्दीन को दोषी साबित कर लेती मोदी सरकार.. क्यों नहीं कर सके? उलटे बीवी को अगवा किया और फिर जलाकर मार भी डाला? ये क्या है? क्या ऐसा होता प्रशासन? और उस पर लगाम लगाने वाली सरकार?
हां होगा.. सोहराबुद्दीन आतंकवादी किंतु क्या अभियुक्तों को यूं पुलिस क़ानून हाथ में लेकर टपकाती फिरेगी? कल को आपके रिश्ते-नातेदार को कोई निजी खुन्नस निकालने के लिए पुलिसवाला टपकाने की ठान ले तो कहां जाएगा ये सभ्य समाज और क़ानून?
They killed and burnt Kausebi.
She is not alone. What happened in Gujrat during Modi-raj?
The land of Gandhi has been blotched by the sons of Godseys.
माना कि सोहराबुद्दीन और तुलसी आतंकवादी थे, यह भी माना कि इस घटना को साम्प्रदायिक रंग देना गलत है पर फिर भी सोहराबुद्दीन, तुलसी और कौसरबी की हत्या को जिस तरह से अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन दे रहे हैं उसे भी सही नहीं माना जा सकता।
@रंजन
हाँ रंजन भाई बात और भी गहरी है मैंने पहले पैराग्राफ में लिखा है
सोहराबुद्दीन, तुलसी और पुलिस तो परिदृश्य में नज़र आने वाली कठपुतलियाँ हैं इनको चलाने वाले हाथ उस पर्दे की पीछे हैं जो राजनीति और माफिया के ताने बाने से बुना गया है। नेपथ्य में जो भी है शायद मीडिया जानता भी होगा तो सामने नहीं लाएगा।
@नीरज दीवान
नीरज भाई आप निश्चित रूप से मुझसे अधिक जानते हैं। आप पुलिस प्रशासन, सरकार पर प्रश्न चिह्न लगा सकते हैं परंतु एक अपराधी तो अपराधी ही था। आप भी जानते हैं कितने ही माफिया जेल में बैठ कर अपना कारोबार कर रहे हैं। इन लोगों को राजनैतिक संरक्षण प्राप्त होता है। ऐसे में पुलिस की स्थिति क्या होती है जब अपराधी उन्हें ही आँखें दिखाए और यदि पुलिस कुछ करना चाहे तो अपराधियों के आका राजनेता के कारण कुछ कर न पाए।
वैसे भी यह एक आपराधिक घटनाक्रम था और मैं इसे धार्मिक रंग देने के विरुद्ध हूँ।
जैसा कि आपने लिखा कि मेरे रिश्ते नातेदार। अच्छा कटाक्ष है भाई साहब सोहराबुद्दीन की तुलना मेरे या आपके या किसी के भी आम रिश्तेदारों से न करें। यदि आप चाहें तो आप ही भारतीय पुलिस के इतिहास में मुझे ऐसे सैकड़ों उदाहरण बता देंगे। परंतु मैं एक अपराधी की बात कर रहा हूँ, अपराधी भी ऐसा जो कोई चोर, उठाईगिरा या लूट मचाने वाला नहीं था।
@shazul
शाज़ुल भाई या शज़ुल भाई, शादी के 21 वर्षों बाद जब पहले पति की नौकरी छूटने से घर की आर्थिक स्थिति डाँवाडोल हो गई तो तलाक की नौबत आ गई, उस समय कौसर बी के बच्चे लगभग बालिग हो चुके थे, ऐसे में पति का साथ देना था। धन और ग्लेमर का आकर्षण ही उसके और सोहराबुद्दीन के साथ का कारण बना। अपराधियों का मारा जाना हत्या नहीं होती।
सोहराबुद्दीन की फरारी के समय इन्दौर में कौसर बी उसके साथ ही थी। भाईजान यदि कोई व्यक्ति किसी चोर के साथ है तो पुलिस एकबारगी तो उसे भी थाने बैठा लेगी। बुजुर्ग लोग कुसंगति के बारे में समझा गए हैं।
एक बात और शाज़ुल भाईजान, मरने वाले गाँधी नहीं थे और मारने वाले गोडसे नहीं हैं। मैं मध्य प्रदेश में रहता हूँ फिर भी कहता हूँ कि गुजरात की स्थिति अन्य राज्यों से कम से कम हिन्दी भाषी राज्यों से अच्छी है। मोदी के गुजरात को क्यों कोसते हैं इस घटनाक्रम में हैदराबाद पुलिस भी शामिल है, और यह घटना आंध्र प्रदेश में भी हो सकती थी।
@सागर
क्या आप सागर चन्द्र नाहर हैं? खैर आप कोई भी हों, आपको भी बता दुँ यदि कोई अपराधी पुलिस के हाथों मारा जाता है तो उसे हत्या नहीं कहते। दूसरी बात यह पोस्ट किसी हत्या के समर्थन में नहीं लिखी गई है। आप इसे फिर से एक बार पढ़ें। इसमें सोहराबुद्दीन का वर्णन ज्यादा हो गया है, परंतु उसकी पृष्ठभूमि के बारे में बताना भी ज़रूरी था।
मैं केवल यह कहना चाहता हूँ कि इस घटना में तुलसी का नाम क्यों नहीं आया और इसे किसी भी धर्म से क्यों जोड़ा जा रहा है। यह अपराध जगत की एक घटना है और इसके साथ हिन्दू, मुसलमान की बात करना बेमानी है। मीडिया दिखाता है कि मुसलमान को मारा गया। मीडिया नहीं जानता कि एक अपराधी मारा गया। और तुलसी कहाँ गया? हिन्दु होने के कारण उसका तो नाम ही नहीं लिया गया।
me post se akshrash sahmat hu . tulsi naam kyo nahi uchla gaya . bhart ne dharm nirpekshta ka matlab dharmic partiyogita ho gaya he . halaki kanun ka ulaghghan galat he . kal ko koi nirdosh hote huee bhi mara jaye to polise jo chhe kar sakti he . aatankvadiyo or kisi parkaar ka dusaro ke manvadhikaro ke fikra na karne vale logo ke manvadhikaro ki duhee dena . doglapan he .yahi vajah he ki ak samaj me dono vargo me ashishunta badhti a rahi he . the hindu me daily khabre padhta hu lekin vo sohrabudeen ke apraadho ke bare me koi khabar nahi chhpte .
राकेशजी आप ठीक कह रहे हैं।
नीरज दीवान जी ने सोहराब को पाक साफ कैसे कह दिया? जबकि वह हथियार मामले मे पांच साल की जेल पहले काट चुका था और उसके बाद और भी खूंखार अपराधी बन गया था। नीरज जी आतंकवादियों और अपराधियों के मानवाधिकार की पैरवी करेंगे तो समाज में मानव कैसे बचे रह पाएंगे?
अतुल जी
आपने सोह्राबुद्दन का जो प रिचय दिया है वह शायद अखबारों की कतरनों के आधार पर है. मैं ख जानता हूं ( और यह वे सब जानते हैं जो आज मीडिया पर गहरी नज़र रखते हैं) कि खबरें किस तरह बनती हैं और किसि का परिचय किस तरह गढा जाता है. सारे अखबार और दूसरे संचार माध्यम अब पुलिस और प्रशासन को ही मुख्य स्रोत और संदर्भ के रूप में इस्तेमाल करते हैं उसी पर आधारित हैं. ऐसे में उनके आधार पर किसी के बारे में धारणा बनाना ठीक नहीं है. और अगर सोहराबुद्दीन इतना ही बडा़ आतंकवादी था तो फिर उसे अदालत में साबित क्यों नहीं किया सरकार ने जबकि वह कर सकती थी( गुजरात दंगों के मामले में यही तो किया जा रहा है). अगर मान भी लें कि वह दोषी था तो क्या किसी को मार देने का हक पुलिस के पास है या होना चाहिए?
और अब थोडा़ उस टिप्पणी पर जिसे आप मेरे ब्लाग पर दे आये हैं. अगर यह मामला धर्म से ही जुडा़ हुआ है तो इसे मैं दोबारा कैसे जोड़ सकता हूं? आप कहते हैं कि यह धर्म से जुडा़ मामला नहीं है. क्या आप बतायेंगे कि फ़िर ऐसा क्यों है कि अब तक गुजरात में सारे एनकाउंटरों में (वे भी खोजे जायें तो फ़रजी निकलेंगे) मारे गये लोग मुसलमान ही थे? दूसरे धर्म का एक भी बंदा नहीं? क्यों?
वैसे इस मुद्दे पर यहां कुछ डाला है मैंने. आयें तो खुशी होगी.
http://aginkhor.blogspot.com/
भाई आपने बिल्कुल सही लिखा है ..”सोहराबुद्दीन, तुलसी और पुलिस तो परिदृश्य में नज़र आने वाली कठपुतलियाँ हैं इनको चलाने वाले हाथ उस पर्दे की पीछे हैं जो राजनीति और माफिया के नाते ताने से बुना गया है। नेपथ्य में जो भी है शायद मीडिया जानता भी होगा तो सामने नहीं लाएगा।”
मैं चूंकि खुद मीडिया से जुड़ा हूं सो जानता है कि वहां ख़बरों को प्राथमिकता या फिर सत्यता जानने का आधार क्या होता है ? दुनिया एक भेड़चाल है ….
मनीष राज सिंह
अगिनखोर उवाच…
अगर मान भी लें कि वह दोषी था तो क्या किसी को मार देने का हक पुलिस के पास है या होना चाहिए?
बिल्कुल नहीं होना चाहिये. पर कानून दुरुस्त करने की बात हो तो भी अगिनखोर जी जैसे ही चीत्कार करेंगे.
अव्वल तो यह कि अगिनखोर जी कानून दुरुस्त करने की बात पर बिलकुल चीत्कार नहीं करेंगे पांडेय जी, बशर्ते कि वह आम लोगों को और लोकतांत्रिक आज़ादी दे और पुलिस को और अधिक अधिकार न दे. पुलिस के पास पहले से ही इतने अधिकार हैं कि अब उनको कम करने पर विचार होना चाहिए.
और अब अतुल जी
आपने जो टिप्पणी मेरे ब्लाग पर दी थी उसका जवाब (देर से ही सही) वहां हाज़िर है.
पधारेंगे?
आपने अच्छी जानकारी दी है. धन्यवाद.
पता नहीं लोगों को मानवाधिकार आतंकवादियों के ही क्यों याद रहते है,आतंकवादी था मार दिया खत्म