बिना किसी भूमिका के बात शुरु करूँ तो लगभग ढाई साल पहले मालव संदेश अपडेट हुआ था। उसके बाद कोई गतिविधि नहीं रही। इसके पीछे कुछ अपरिहार्य तकनीकी कारण रहे। परंतु सबसे मुख्य कारण था 1 अगस्त 2006 को मेरी बेटी प्रबोधिनी का आगमन।
उसके आने के बाद काम पर जाने के पहले और काम से आने के बाद का समय उसी के साथ बीतने लगा। घर पर इंटरनेट की सुविधा थी नहीं और सायबर कैफ़े जाने जैसा दुस्साहसपूर्ण कृत्य किया नहीं। इस दौरान ब्लॉग पढ़े भी नहीं जा सके। सुबह लगभग 10-11 बजे से लेकर शाम या कह लें रात के 8-9 बजे तक काम करने के बाद बस यही लगता था कि जल्दी से अपने परिवार के पास घर पहुँचो। हालाँकि बहुत से लोगों का काम ऐसा होगा कि उन्हें इससे भी अधिक समय उनके काम को देना पड़ता होगा। फिर भी इतना समय ऑफ़िस में बिताने के बाद लगता था कि बचे समय पर प्रबोधिनी का अधिकार है और यह उसे मिलना ही चाहिए। उसकी लगभग दो साल की उम्र होने तक उसके सोने-जागने का कोई निश्चित समय नहीं था। इसलिए हमारी, यानी मेरी और मेरी पत्नी की दिनचर्या भी कुछ अस्तव्यस्त सी ही रही।
भुआजी के साथ
आज वह तीन साल छ: माह की हो गई है और नर्सरी कक्षा में स्कूल भी जाने लगी है, इसलिए सोचा कि एक बार फिर से चिट्ठाकारी में हाथ आजमाया जाए। पर लगता है ये इतना आसान नहीं है। क्या लिखें और कैसे लिखें? लगता है अपनी ट्यूब खाली हो गई है या सूख गई है या फिर इतने दिनों ब्लॉगजगत से दूर रहने से मेरा पर्सोना बदल गया है। और यहाँ इलाहाबाद में ट्यूब भी वैरायटी में मिल रही हैं। पीछे मुड़कर अपने ही ब्लॉग को देखता हूँ तो पाता हूँ चंद सामान्य और कुछ निरर्थक सी पोस्ट लिखी हैं, फिर भी कम आश्चर्य नहीं होता कि वो सब भी मैं कैसे लिख गया। अब ब्लॉग से दूर रह कर जो मुखौटा बना है उस मुखौटे का भंजन कैसे करूँ। या फिर मैं स्टेल हो गया हूँ और अब अपना रूपांतरण नहीं कर पा रहा।
आप सोच रहे होंगे कि केवल हलचल ही क्यों मची रही, तो उसकी वजह यह है कि ऑफ़िस में ब्लॉगर नहीं खुलता है इसलिए इतने दिनों से बस जोगलिखी ही बांची गई या फिर वर्डप्रेस अथवा स्वयं के डोमेन पर होस्ट किए जा रहे चिट्ठे। कभी-कभी लोगों की नज़रों से भी दुनिया देख ली, तो कभी उनका पन्ना भी देख लिया। कभी सागर किनारे भी हो आए। एक बार शस्त्रागार वाले भैया ने भी कहा था कि ज्यादा फुरसतिया होना ठीक नहीं, ये केवल उनका अधिकार है। छींटे और बौछारें तथा उड़नतश्तरी के लिए सायबर कैफ़े का रुख़ करना पड़ता था।
पिछले नवंबर में रविरतलामीजी से भोपाल में मिलने का मौका आया। लगभग 45-50 मिनट की मुलाकात में उन्होंने ने गुरुमंत्र दिया कि ‘कंटेंट इज किंग’, और किंग भी तब है जब नियमित बना रहे।
तब से इस किंग को अपने दिमाग में तलाश करने में इतना समय हो गया। इस बीच में देखा ईपंडित की वापसी हो गई है। मेरे इस युवा मित्र ने भी मुझसे गुजारिश की कि मैं लौट आऊँ तो वे बड़े हैप्पी हो जाएँगे। तो इस बार मालव संदेश की यात्रा यहाँ से शुरू होती है।
तो फिर मिलते हैं वहीं पर।
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बेहतर लिंकित प्रस्तुति…अंदाज़े-बयां खूब है…
धन्यवाद रवि कुमारजी
सादर,
अतुल शर्मा
पुनः स्वागत है आपका ।
आईये आईये….बड़े सही होली के मौके पर वापसी..स्वागत है.
ये रंग भरा त्यौहार, चलो हम होली खेलें
प्रीत की बहे बयार, चलो हम होली खेलें.
पाले जितने द्वेष, चलो उनको बिसरा दें,
खुशी की हो बौछार,चलो हम होली खेलें.
आप एवं आपके परिवार को होली मुबारक.
-समीर लाल ’समीर’
क्या बात है, आजकल वापसियों का दौर चल रहा है। 🙂 आपकी इस वापसी पर आपको बधाई, आशा है कि अब थोड़ा नियमित रहेंगे, तो उसके लिए शुभकामनाएँ। 🙂
बधाई हो अतुल!
फिर होली आ रही है- जहाँ कहीं भी हो लौट आओ. कोई कुछ नहीं कहेगा.. 🙂
Of course the big logical problem here is, that simply because slaves were regarded as not being persons, when they actually are, is not magical proof Click https://twitter.com/moooker1