Posted on 28 फ़रवरी, 2007 by अतुल शर्मा
आज शनिवार है और उन्होंने सुबह सुबह उनके दरवाजे पर आए ‘शनि महाराज’ अर्थात् शनि का दान लेने वाले हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति को कटोरी भर तेल और कुछ सिक्कों का दान किया। यह काम वे हर शनिवार को नियम से करते हैं, कभी भूलते नहीं। आज भी ऑफ़िस के लिए निकलते समय ‘कालू’ के लिए घी की रोटी ज़रूर साथ में रखी। कालू नुक्कड़ पर मिलने वाला काला कुत्ता है। ज्योतिषी महाराज ने कहा था कि हर शनिवार को काली वस्तुओं का दान करें और काले कुत्ते को घी रोटी खिलाएँ तो उन पर छाई शनि की महादशा का समय बिना किसी कष्ट के निकल जाएगा। ऑफ़िस के रास्ते में पड़ने वाले शनि मंदिर पहुँच कर वहाँ भी बाहर लगी दुकान से तेल-फूल आदि पूजन सामग्री खरीदी और मंदिर में पहुँचे। बड़े भक्तिभाव से पूजन-अर्चन किया। कुछ मंत्र भी पढ़े जो उनके ज्योतिषी महोदय ने सिखाए थे। अब वे मंदिर के बाहर पंक्तिबद्ध बैठे भिखारियों को श्रद्धापूर्वक एक-दो रूपये देते जा रहे थे। अधिकतर भिखारी सक्षम थे और अपनी रोजी कमा सकते थे। दूर खड़ा नौ-दस साल का बालक उन्हें देख रहा था। उसे लगा ये साहब बड़े ही दयालु हैं। उसके मन में भी कुछ उम्मीदें जागीं। वह उनके पास गया और बोला, ” सा’ब पालिस…एकदम चमका दूँगा”, हाँ वह बालक जूते पॉलिश करके मेहनत से अपना पेट भरता था। उसकी आवाज़ सुनकर साहब की त्यौरियाँ चढ़ गईं। वे गुस्से से चिल्लाए, ”चल भाग यहाँ से… पता नहीं कहाँ से चले आते हैं सुबह सुबह… सारा मूड ख़राब कर दिया…”। बालक सहम गया और हैरानी से उन्हें देखता रहा जब तक कि वे आखों से ओझल न हो गए।
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Posted on 31 अगस्त, 2006 by अतुल शर्मा
वे स्त्री स्वातंत्र्य पर व्याख्यान देकर लौट रहीं थीं। वे शहर के गर्ल्स कॉलेज में प्रोफ़ेसर हैं। अभी अभी उम्र के तीन दशक पार किए हैं। वर्तमान में वे भारतीय समाज में स्त्री की दशा पर एक शोध ग्रंथ लिख रही हैं। अपने स्टाफ़ में वे एक दबंग और स्वाभिमानी महिला के रूप में जानी जाती हैं। उनके ओजस्वी भाषण की बहुत तारीफ़ हुई, शहर का मीडिया भी अख़बारों के अगले दिन के संस्करण के लिए उनकी प्रशंसा की तैयारी कर चुका था। उन्होंने आज की नारी की आज़ादी के लिए ज़ोरदार वक्तव्य दिया। उन्होंने कहा कि आज नारी पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिला कर हर क्षेत्र में भागीदारी कर रही है। कल्पना चावला, सानिया मिर्जा आज की हर लड़की की आदर्श हैं। आज हर स्त्री अपने निर्णय स्वयं लेने के लिए स्वतंत्र है, फिर चाहे बात उसके पढ़ाई-सर्विस की हो या शादी की। ये इक्कीसवीं सदी है और औरत अपनी बेड़ियाँ तोड़ चुकी है। उस पर किसी प्रकार का कोई बंधन नहीं है – न घर में न बाहर। वह अपना जीवन स्वयं की इच्छानुसार जी सकती है। अपने शब्दों और तालियों की गड़गड़ाहट में खोई वे अपने घर कब पहुँच गईं पता ही नहीं चला। घर के आँगन में उनकी हमउम्र भाभी झाड़ू लगा रही थीं। वे भी उच्च शिक्षित थीं और विवाह के पहले बैंक में कैशियर के पद पर कार्यरत थीं। घर वालों की तथाकथित इज्जत, कि बहू घर के बाहर काम नहीं करेगी, के लिए उन्होंने अपनी अच्छी-भली बैंक की नौकरी कुर्बान की थी। जैसे ही प्रोफ़ेसर महोदया की कार ने आँगन में प्रवेश किया, भाभी को देख उनका पारा सातवें आसमान पर जा पहुँचा। वे बुरी तरह से चीखीं, ‘माँऽऽऽऽऽऽ ओ माँऽऽऽऽऽ देखो तो भाभी को! यहाँ आँगन में खुल्लेऽऽ सिर घूम रही है… लाज शरम सब बेच खाई है… ऐसे कैसे सिर से पल्ला खिसक जाता है… इसके तो सिर में एक खूँटी ठोक दो तो उसपे साड़ी अटकी रहेगी’।
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