वापसी

बिना किसी भूमिका के बात शुरु करूँ तो लगभग ढाई साल पहले मालव संदेश अपडेट हुआ था। उसके बाद कोई गतिविधि नहीं रही। इसके पीछे कुछ अपरिहार्य तकनीकी कारण रहे। परंतु सबसे मुख्य कारण था 1 अगस्त 2006 को मेरी बेटी प्रबोधिनी का आगमन।

Prabodhini

उसके आने के बाद काम पर जाने के पहले और काम से आने के बाद का समय उसी के साथ बीतने लगा। घर पर इंटरनेट की सुविधा थी नहीं और सायबर कैफ़े जाने जैसा दुस्साहसपूर्ण कृत्य किया नहीं। इस दौरान ब्लॉग पढ़े भी नहीं जा सके। सुबह लगभग 10-11 बजे से लेकर शाम या कह लें रात के 8-9 बजे तक काम करने के बाद बस यही लगता था कि जल्दी से अपने परिवार के पास घर पहुँचो। हालाँकि बहुत से लोगों का काम ऐसा होगा कि उन्हें इससे भी अधिक समय उनके काम को देना पड़ता होगा। फिर भी इतना समय ऑफ़िस में बिताने के बाद लगता था कि बचे समय पर प्रबोधिनी का अधिकार है और यह उसे मिलना ही चाहिए। उसकी लगभग दो साल की उम्र होने तक उसके सोने-जागने का कोई निश्चित समय नहीं था। इसलिए हमारी, यानी मेरी और मेरी पत्नी की दिनचर्या भी कुछ अस्तव्यस्त सी ही रही।

Prabodhini

भुआजी के साथ‍

भुआजी के साथ

आज वह तीन साल छ: माह की हो गई है और नर्सरी कक्षा में स्कूल भी जाने लगी है, इसलिए सोचा कि एक बार फिर से चिट्ठाकारी में हाथ आजमाया जाए। पर लगता है ये इतना आसान नहीं है। क्या लिखें और कैसे लिखें? लगता है अपनी ट्यूब खाली हो गई है या सूख गई है या फिर इतने दिनों ब्लॉगजगत से दूर रहने से मेरा पर्सोना बदल गया है। और यहाँ इलाहाबाद में ट्यूब भी वैरायटी में मिल रही हैं। पीछे मुड़कर अपने ही ब्लॉग को देखता हूँ तो पाता हूँ चंद सामान्य और कुछ निरर्थक सी पोस्ट लिखी हैं, फिर भी कम आश्चर्य नहीं होता कि वो सब भी मैं कैसे लिख गया। अब ब्लॉग से दूर रह कर जो मुखौटा बना है उस मुखौटे का भंजन कैसे करूँ। या फिर मैं स्टेल हो गया हूँ और अब अपना रूपांतरण नहीं कर पा रहा।

आप सोच रहे होंगे कि केवल हलचल ही क्यों मची रही, तो उसकी वजह यह है कि ऑफ़िस में ब्लॉगर नहीं खुलता है इसलिए इतने दिनों से बस जोगलिखी ही बांची गई या फिर वर्डप्रेस अथवा स्वयं के डोमेन पर होस्ट किए जा रहे चिट्ठे। कभी-कभी लोगों की नज़रों से भी दुनिया देख ली, तो कभी उनका पन्ना भी देख लिया। कभी सागर किनारे भी हो आए। एक बार शस्त्रागार वाले भैया ने भी कहा था कि ज्यादा फुरसतिया होना ठीक नहीं, ये केवल उनका अधिकार है। छींटे और बौछारें तथा उड़नतश्तरी के लिए सायबर कैफ़े का रुख़ करना पड़ता था।

पिछले नवंबर में रविरतलामीजी से भोपाल में मिलने का मौका आया। लगभग 45-50 मिनट की मुलाकात में उन्होंने ने गुरुमंत्र दिया कि ‘कंटेंट इज किंग’, और किंग भी तब है जब नियमित बना रहे।

तब से इस किंग को अपने दिमाग में तलाश करने में इतना समय हो गया। इस बीच में देखा ईपंडित की वापसी हो गई है। मेरे इस युवा मित्र ने भी मुझसे गुजारिश की कि मैं लौट आऊँ तो वे बड़े हैप्पी हो जाएँगे। तो इस बार मालव संदेश की यात्रा यहाँ से शुरू होती है।

तो फिर मिलते हैं वहीं पर।

बर्थ सर्टिफिकेट ऑफ़ लॉर्ड रामा

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

पवनपुत्र हनुमान बड़े ही चिंतित दिखाई दे रहे थे। उनकी भावभंगिमा से वे किसी उहापोह में लगते थे। आकुल-व्याकुल से वे अपने प्रभु श्रीराम के पास पहुँचे तो उन्हें ऐसे बदहवास देख कर भगवान राम भी घबरा उठे।
Hanuman

प्रभु बोले, ‘हनुमान ये क्या दशा हो गई तुम्हारी? लोग अपनी चिन्ताओं, दु:खों के निवारण के लिए तुम्हारे पास आते हैं और तुम स्वयं ही व्यथित लग रहे हो? क्या लोगों के दु:ख से दु:खी हो गए हो?’
हनुमान बोले, ‘प्रभु बात तो बड़ी गंभीर है। मेरे अस्तित्व डावाँडोल हो गया है। मुझे ऐसा लगने लगा है कि मैं हूँ भी या नहीं।’
‘क्या हुआ तुम्हारे अस्तित्व को? अच्छा भला हो तो है।’
‘बात ये है प्रभु अभी अभी जम्बू द्वीप के शासक और शासक के नियंत्रक और समर्थकों ने आपके अस्तित्व को ही नकार दिया है। उनका कहना है कि राम केवल काल्पनिक चरित्र है और रामायण के पात्र और इसके घटनाक्रम का कोई ऐतिहासिक और वैज्ञानिक प्रमाण नहीं हैं और रामसेतु जैसा तो कुछ है ही नहीं। इस आर्यावर्त के पुरातत्वविदों ने भी कुछ ऐसा ही विश्लेषण किया है।
राम ने कहा, ‘तो इसमें तुम क्यों चिंतित होते हो? ये तो मेरे अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न है और मुझे इसकी कोई चिंता नहीं है।’

पवनपुत्र ने बड़ी व्यग्रता से कहा, ‘यही तो दु:ख की बात है कि आपके अस्तित्व से मेरा अस्तित्व जुड़ा है। यदि राम नहीं है तो हनुमान तो है ही नहीं। आज भारत में आपसे भी अधिक मेरे भक्त हैं क्योंकि अब जनता जानती है कि नेता से ज़्यादा उसका पीए या सेक्रेटरी काम का होता है। इसलिए जैसे नेताओं के लिए ज़िन्दाबाद के नारे जनता लगाती ज़रूर है परंतु काम करवाने के लिए उसके सेक्रेटरी के पास जाती है। ऐसे ही देश की जनता नेताओं के साथ जयसियाराम के नारे अवश्य लगाती है परंतु संकट के समय आपके पास नहीं मेरे पास आती है। कारण यह है कि मेरे पास यह गदा है और मेरे पराक्रम और शक्ति की गाथाएँ तो प्राचीन काल से प्रचलित हैं। आज लोगों को यह पता है कि काम करवाने या संरक्षण के लिए किसी ‘बाहुबली’ की ज़रूरत होती है इसलिए वो आपके बजाय मेरे पास आते हैं।’
‘तो हनुमान क्या लोग मेरे पराक्रम को भूल गए हैं?’
‘नहीं प्रभु बात वो नहीं है। लोग जानते हैं कि कोई बाहुबली, सांसद या विधायक बन जाता है तो स्वयं के बाहुबल का प्रयोग नहीं करता फिर वह अपने किसी असिस्टेंट के बाहुबल को प्रमोट करता है। शायद इसीलिए लोग मेरे पास आते हैं और आने वालों में अपना काम करवाने वाले कम हैं अधिकतर तो शनिदेव से बचने के लिए मेरे पास आ जाते हैं क्योंकि वो जानते हैं कि मेरे इलाके में शनिदेव की नहीं चलती।’
‘परंतु हनुमान जहाँ तक मैं जानता हूँ कि ये आधुनिक बाहुबली तो निर्बलों, निर्दोषों पर बलप्रदर्शन करते हैं। ये तो हमारी नीति नहीं रही है।’
‘हाँ प्रभु ये सही है परंतु आज ऐसे बाहुबली ही संसद या विधानसभा में पहुँचते हैं।’
अचानक हनुमान कुछ याद करके बोले, ‘हे राम, बात तो मुद्दे से भटक रही हैं मैं तो यहाँ पर आपके और मेरे अस्तित्व की बात करने आया था।’
श्रीराम बोले, ‘हाँ हाँ, कहो महावीर क्या कहना चाहते हो?’
‘भगवन् मैं यह कहना चाहता हूँ कि त्रेतायुग में ही यदि तात दशरथ ने आपका जन्म प्रमाणपत्र यानी बर्थ सर्टिफ़िकेट बनवा लिया होता तो आज ये दिन नहीं देखना पड़ता। मेरे पिता केसरी ने भी जन्म प्रमाणपत्र नहीं बनवाया।’
‘तब तो ऐसा कोई प्रावधान नहीं था।’
‘परंतु प्रभु अब ये बहुत आवश्यक है।’
‘पवनपुत्र किसी मनुष्य या किसी भी प्राणी के जन्म लेने पर उसके लिए अलग से किस प्रमाण की आवश्यकता है?’
‘आवश्यकता है प्रभु। यदि इस समय आप जम्बू द्वीप जाएँ और कहें कि आप ही वह रघुवंशी राम हैं जिसने रावण का नाश किया था तो लोग सबसे आपके होने का प्रमाण माँगेगे। किसी भी व्यक्ति का जन्म प्रमाणपत्र ही यह सिद्ध करता है कि इस नाम के व्यक्ति ने फलाँ-फलाँ तारीख़ और समय को फलाँ शहर में जन्म लिया था।’
‘हनुमान शायद मानव ने बहुत अधिक विकास कर लिया है।’
‘पता नहीं प्रभु, परंतु इस जन्म प्रमाणपत्र के बिना गुरुकुल, मेरा तात्पर्य है कि स्कूल का प्रिंसिपल मानेगा ही नहीं कि इस बच्चे ने जन्म भी लिया है।’
इस श्रीराम ने कहा, ‘ठीक है हनुमान तुम्हारे लिए तो तुलसी बाबा ने कहा ही है ‘रामकाज करिबै को रसिया’, तो तुम मेरा जन्म प्रमाणपत्र अब बनवा लो और सरकार को प्रस्तुत कर दो साथ अपनी भ‍ी बनवा लेना।’
अंजनिपुत्र इस पर भड़क गए, ‘नहीं प्रभु, आप चाहें तो मैं फिर से एक छलांग में लंका जा सकता हूँ, आप चाहें तो मैं फिर से संजीवन‍ी बूटी के लिए पूरा गंधमादन पर्वत लाकर दे सकता हूँ। परंतु ये जन्म प्रमाणपत्र का काम मुझसे नहीं होगा। वो नगरपालिका वाले मुझसे इतने चक्कर कटवा लेंगे कि मैं अपनी पवनवेग से चलने की शक्ति ही खो बैठूँगा। वैसे मेरे भक्त नगरपालिका के जन्म-मृत्यु विभाग में हैं परंतु यदि मैं अपने मूल स्वरूप गया तो मुझे बहरूपिया समझकर टरका देंगे और यदि सामान्य मानव के रूप में जाऊँ तो उत्कोच के लिए मेरे पास धन नहीं है।’
श्रीराम ने यह सुनकर बहुत गंभीरता से कहा, ‘मारुतिनंदन, चाहे जो हो तुम यह काम तो कर ही लो। तुम्हारे और मेरे जन्म प्रमाणपत्र के साथ-साथ भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न, सीता और हाँ लव-कुश का जन्म प्रमाणपत्र भी बनवा लेना। देखो हनुमान ये काम तो तुम्हें करना ही है क्योंकि बात मुझे भी समझ में आ गई है कि आज के युग में जम्बू द्वीप में हम सबके अस्तित्व के लिए जन्म प्रमाणपत्र अति आवश्यक है। तुम धन मुझसे ले लो, अपने किसी भक्त को पकड़ो और शीघ्र ही इस कार्य को पूर्ण करो।’
(हनुमान फिर से रामकाज को निकल पड़े हैं, क्या है कोई चिट्ठाकार, टिप्पणीकार, पाठक जो हनुमान के काम का ठेका ले सके।)

चिट्ठाजगत पर सम्बन्धित: हनुमान, राम, जन्म, प्रमाणपत्र, रामसेतु, Hanuman, Rama, Birth, Certificate, Ramsetu,

चिठ्ठाकारी का एक साल

कल इस चिट्ठे को एक वर्ष पूरा हो गया। समय की कमी के कारण इस पोस्ट कल नहीं लिख सका  इसलिए ‍चिट्ठे के जन्मदिन के दूसरे दिन मैं यह पोस्ट डाल रहा हूँ। ठीक एक साल पहले 6 जून 2006 को पहली पोस्ट लिखी थी और देखते ही देखते एक साल गुजर गया पता ही नहीं चला। जब इस पोस्ट को लिखने के लिए पहली पोस्ट को देखा तो मालूम हुआ कि चिट्ठे की शुरुआत वाले दिन में कुछ खास बात है; तारीख 6, महीना छठा (जून) और इक्कीसवीं सदी का छठा साल (2006)। वैसे देखा जाए तो यह दिन केवल लिखने के प्रयास की शुरुआत का दिन है। चिट्ठों की गलियों में भटकना तो 2006 की आधी फरवरी से ही शुरु कर दिया था। इन्हीं दिनों एक दिन गूगल पर कुछ सर्च करने पर गूगल ने जो सूची दी थी उसमें एक लिंक अतुलजी अरोरा के संस्मरण ब्लॉग लाइफ इन ए एचओवी लेन के लिए थी। वहाँ जाने पर बहुत हैरानी हुई थी। हैरानी इसलिए कि यह सब उनका हिन्दी में व्यक्तिगत लेखन था अर्थात् यह कोई समाचार पत्र, पत्रिका की साइट नहीं थी। उस समय तक इंटरनेट साइट्स के बारे में मेरा ज्ञान इतना ही था ‍कि केवल सरकारी-निजी संस्थान, कंपनियाँ, शिक्षा संस्थान, व्यापारिक संगठन, संस्था आदि ही साइट बना सकते हैं। अपनी निजी साइट बनाना आम आदमी के बूते के बाहर है क्योंकि नेट पर जगह पाना बहुत मँहगा हो सकता है और उससे भी बड़ी बात, साइट का खाका तैयार करने के लिए किसी वेब डिज़ाइनर की सेवा लेना अतिआवश्यक है। इसके अलावा मैं केवल इतना जानता था कि हिन्दी तो केवल कुछ गिने-चुने समाचार पत्रों, पत्रिकाओं की साइट पर देखी जा सकती है, बाकी तो इंटरनेट पर सभी कुछ अंग्रेजी में है। गूगल पर हिन्दी शब्दों की खोज तो केवल उत्सुकतावश की थी। उसी उत्सुकता से अतुलजी का संस्मरण पढ़ना शुरु किया तो पढ़ता ही चला गया, इतनी रोचक, बांधे रखने वाली सरल भाषा में लिखा गया है किसी कोई भी भाग अधूरा छोड़ने का मन ही नहीं करता था। आज भी इसे पढ़ने में वही आनंद आता है जो पहली बार आया था। एक ही कमी है इस पर टिप्पणियाँ बहुत ही कम हैं (मैंने खुद ने ही नहीं डाली अब तक 😦  )। 

यहीं से शुरु होता है अंदर उतरते जाने का सफर। मुझे टिप्पणियों में जो नाम दिखाई दिए उनमें से दो थे जितेन्द्रजी चौधरी और अनूपजी शुक्ला। इनके नामों पर क्लिक करके देखा तो दूसरे दरवाजे खुलना शुरु हुए। मैं हर चिट्ठे की टिप्पणी के माध्यम से अगले चिट्ठे पर जाता था। जिस भी नए चिट्ठे पर जाता उसका URL कॉपी करके रख लेता। इस तरह फ़रवरी के अंतिम सप्ताह से लेकर मई तक मैंने लगभग 150 चिट्ठों की सूची तैयार कर ली थी। जी हाँ, उस समय तक नारद के बारे में ठीक से नहीं जान पाया था। बीच में किसी चिट्ठे पर नारद के बटन को क्लिक किया था और जाकर देखा तो बहुत सारे शीर्षक हैं और उनके नीचे चार चार लाइनों का विवरण है। मैंने सोचा, ‘यह कुछ अजीब चिट्ठा है, सब पोस्ट अधूरी डिस्प्ले होती है।’ बाद में चिट्ठों को पढ़ पढ़ कर समझ में आया कि नारद एक जंक्शन है और हर चिट्ठे की रेल यहीं से होकर गुजरती है। किसी चिट्ठे पर बुनो कहानी का जायजा लिया, तो किसी से होकर सर्वज्ञ पर पहुँचा। इसी तरह अनुगूँज, अक्षरग्राम, निरंतर, चिट्ठाविश्व, ब्लॉगनाद आदि के बारे में जाना। तब भी मैं इन सबको अलग अलग चिट्ठे समझता था। बाद में जाना कि ये सभी नारद के समवेत स्वर () हैं। इसी दौरान इन चिट्ठों को पढ़ते पढ़ते यह जाना कि ये चिट्ठे ब्लॉग कहलाते हैं और ब्लॉग का हिन्दी शब्द चिट्ठा मान्य किया गया है।

इतने चिट्ठों से यह मालूम हुआ कि ब्लॉगर एक सेवा है जो लोगों को निशुल्क चिट्ठा बनाने और होस्टिंग की सुविधा देता है। तो मई माह में मैंने भी ब्लॉगर पर पंजीयन किया और चिट्ठा बनाने बैठे, परंतु जब एक छोटी सी पोस्ट लिख कर पब्लिश करने गए तो 71% पर जाकर गाड़ी अटक गई। दोबारा प्रयास किया तो फिर 71% पर जाकर विराम लग गया। एक बार और कोशिश की परंतु वही ढाक के तीन पात। अब तो हिम्मत जवाब दे गई थी। शायद नेटवर्क की या कोई अन्य समस्या रही होगी अलबत्ता चिट्ठा बनाने का विचार कुछ दिनों के लिए स्थगित कर दिया गया। मैंने सोचा था कि चिट्ठा न बने तो भी कोई बात नहीं पंजीकरण टिप्पणी देने के काम आएगा क्योंकि बहुत से चिट्ठों में टिप्पणी करने के लिए लॉ‍ग इन करना होता है और इसीलिए शुरु में तो यही समझ लिया था कि केवल एक चिट्ठाकार ही दूसरे चिट्ठाकार के चिट्ठे पर टिप्पणी दे सकता है (हाल ही में कुछ दिनों पहले इसी लॉग इन करके टिपियाने की प्रथा के कारण ही ब्लॉगर पर दोबारा पंजीयन किया)। फ़रवरी से मई तक कहीं भी टिप्पणी नहीं की थी। थोड़ा सा भय भी था क्योंकि पुराने लोग बेतकल्लुफ थे और हमें लगता था कि इनके बीच में हम कहाँ कूद पड़ें, बेवजह ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’ ठीक नहीं। तो मैं साक्षी भाव से चिट्ठों को निहारे जा रहा था कि अचानक एक दिन बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा। कुछ चिट्ठों की पोस्ट में संदेश देखा कि वे ब्लॉगर से वर्डप्रेस डॉट कॉम के घर पर जा रहे हैं (वो कौन से चिट्ठे थे अब याद भी नहीं है)। अब तक एकत्र किए ज्ञान से इतना समझ में आ गया कि ये ब्लॉगर जैसी कोई दूसरी सेवा है जहाँ चिट्ठे बनाए जा सकते हैं। उन बंधुओं के बताते पते पर जाकर उनके नए चिट्ठों को निहारा, वे कुछ अलग-अलग से लगे, तो मैंने सोचा लगे हाथ वर्डप्रेस पर ही चिट्ठा बना कर देख लिया जाए। यहाँ पर बहुत ही आसानी से चिट्ठा बन गया तो मालव संदेश यहीं पर शुरु हो गया जो आपके सामने हैं। यह चिट्ठा ब्लॉगर और वर्डप्रेस के गुण-अवगुण देख कर नहीं बनाया बल्कि जहाँ आसानी से बन गया वहीं डेरा डाल लिया।

यह तो मेरे चिट्ठे के निर्माण तक की गाथा थी। इसमें मुख्‍य रूप से मैंने चिट्ठों को देखने-पढ़ने और स्वयं का चिट्ठा बनाने की बात की। फ़रवरी से मई तक लगभग तीन माह तक मैंने जो तकरीबन 150 चिट्ठे देखे उनमें से अनेक पर आज भी लेखन जारी है और कई ऐसे भी हैं जो एक अरसे से सोए पड़े हैं। मैं चाहता हूँ कि जो कुछ उस समय मैंने देखा, पढ़ा समझा कुछ उसके बारे में बताऊँ, कुछ उन चिट्ठों और चिट्ठाकारों के बारे में बताऊँ जिन्हें मैंने उस समय पढ़ा और बाद तक पढ़ता आया हूँ। जो एक साल आप लोगों के साथ गुजारा उसके बारे में भी लिखना चाहता हूँ। इस एक वर्ष में चिट्ठा जगत में जो परिवर्तन मैंने अनुभव किए उसे आपके साथ बाँटना चाहता हूँ। इस दौरान बहुत से नए साथी आए उनके बारे में बात करना चाहता हूँ। परंतु अभी इन सब बातों को समेटने के लिए समय कुछ कम लग रहा है क्योंकि सूत्र सारे बिखरे पड़े हैं इसलिए इस पोस्ट को यहीं विराम दे रहा हूँ। शेष बातें इसी पोस्ट की अगली कड़ी में देने का विचार है।

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पुनश्च: अरुण के आग्रह पर भूल सुधार करते हुए जन्मदिन का केक आप सभी के लिए प्रस्तुत कर दिया गया है।

                                 

जरा सोचिए, क्या मिल जाएगा हमें

धुरविरोधीजी आपने सही लिखा है फिर भी यहाँ चीखने चिल्लाने से न तो मोदी का कुछ होना है, न चन्द्रमोहन का, न एम.एफ़: हुसेन का और ना ही आप जिन्हें समझा रहे हैं उन्हें कुछ असर होना है। गुजरात के नाम से चिल्लाने वाले क्या नहीं जानते हैं कि हिन्दी भाषी राज्यों की क्या हालत है। इन्दौर से कभी पटना, इलाहाबाद दिल्ली जाना होता है तो इन राज्यों की सीमा में जाते ही रेलों पर गुंडों का राज हो जाता है। उसके बारे में कोई नहीं बोलता। रिजर्वेशन हो तो भी रात के समय सोते हुए लोगों को उठा दिया जाता है। महिलाओं से भी बदतमीजी की जाती है। भाई लोगों गुजरात में यह सब नहीं होता फिर भी वहाँ की जनता और प्रशासन को ही कोसा जाता है।
अब इतने लंबे समय के बाद मुझे लगता है हमें क्या मिलेगा इस सबसे। हम चंद लोग नेट पर टीका टिप्पणी करते रहते हैं। मेरे मित्रों में केवल एक है जो इंटरनेट जानता और समझता है क्योंकि वह सॉफ़्टवेयर के क्षेत्र में है परंतु वह भी हिन्दी ब्लॉग के बारे में तब तक नहीं जानता था जब तक कि मैंने उसे नहीं बता दिया। करोड़ों लोग कम्प्यूटर और इंटरनेट के बारे में नहीं जानते, तो हम चंद लोग यहाँ क्या आरोप प्रत्यारोप कर रहे हैं किसी को कुछ नहीं पता। कितना कीमती समय नष्ट किया हम सभी ने अपना सबका। 22 मार्च को विश्व जल दिवस निकल गया किसी ने कोई बात नहीं की सबके सब बेपानी हो गए। एक हिन्दू धर्म और हिन्दू जनता ही सुधारने को बच गई है(?) और तो कोई समस्या है ही नहीं इस ‍देश में। एक गुजरात ही बच गया है देश में सुधारने के लिए बाकी जगह तो प्रेम की गंगा बह रही है।

मातृ दिवस पर सभी ने माँ के लिए पोस्ट लिखी परंतु भाईयो धरती माँ को भी याद कर लेते। यही सोच लेते कि चलो पानी ही बचा लें, धरती का भी और आँखों का भी। परन्तु यहाँ तो लोगों का खून जलाने की बातें होतीं हैं। चिट्ठाजगत का ध्रुवीकरण तो हो ही गया है। मुझे ऐसा लगता है कि बुजुर्गजन चाहते तो समय रहते रोक सकते थे। जब बच्चे लड़ते हैं तो बड़े बुजुर्ग ही उन्हें समझाते हैं। पर यहाँ तो कहा जा रहा है कि हर बच्चे को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता  है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर चन्द्रमोहन स्त्री का नग्न चित्र बनाए जिसमें उसे प्रसव होता दिखाए और कहे कि दुर्गा माता है। ज्ञानदत्तजी पाण्डेय के ब्लॉग पर इस खबर की लिंक हैं। एम. एफ़. हुसैन ने जो बनाया उसे तो यहाँ सार्वजनिक रूप से मैं लिख कर भी नहीं बता सकता हूँ। मैंने देखा है तभी कह रहा हूँ। 

ये लोग जिन लोगों ने हिन्दी में चिट्ठे लिखने की शुरुआत की (भले ही वे पाँच सात लोग थे) वे सोचते थे कि इंटरनेट पर वे इंटरनेट पर हिन्दी की सामग्री उतनी ही सरलता से उपलब्ध हो जितनी कि अन्य भाषाओं की मिलती है, ताकि जब लोग हिन्दी में सर्च करें तो उन्हें हिन्दी में भी संबंधित सामग्री पढ़ने को मिले। हिन्दी विकी का भी यही उद्देश्य था। इसके अलावा जनता को चिट्ठों पर भी सामान्य, गंभीर दोनों किस्म का लेखन मिले तो ही हमारा लेखन सार्थक होगा। परंतु जब कोई खोजते हुए यहाँ आएगा तो देखेगा कि यहाँ लोग एक दूसरे की कुत्ताफजीती (हिन्दी का शब्द है कोई अन्यथा न ले) कर रहे हैं तो क्या सोचेगा। आम चलताऊ भाषा से लेकर गंभीर भाषा और गंभीर किस्म के विरोध चल रहे हैं जिनका कोई औचित्य मुझे नज़र नहीं आता।

हम आने आने वाली पीढ़ी को क्या देने वाले हैं। हिन्दी ब्लॉगजगत में भी अच्छे लेखन की खुशबू से ज्यादा बारूद की गंध आती है अब। कई बार लगता है कि अच्छा तो यह है कि नारद मुनि के दर्शन ही नहीं किए जाएँ तो अच्छा है। अपना चिट्ठा लिखो और खुश रहो, फिर उसे कोई पढ़े या ना पढ़े। जिन लोगों की लेखनी अच्‍छी लगती है उनके लिंक अपने चिट्ठे में लगा लिए जाएँ। भला होगा यदि चार पोस्ट या टिप्पणी न लिख कर अपनी कालोनी में चार घरों के सामने चार पेड़ ही लगा लूँ तो अच्छा है। कुछ लोगों को बारिश का पानी सहेजने के लिए मना लूँ तो अच्छा है।

लानत है हम सब पढ़ लिखों पर नहीं मुझ पर-अपनेआप पर, इससे अच्छी मालवा के गाँव (जहाँ रहता हूँ वहीं का लिखूँगा ना) की अपनढ़ सईदा चाची है जो शुद्ध मालवी बोली में कहती हैं, ‘पोर बिलकिस के परणई दी है’ (पिछले वर्ष बिलकिस का विवाह कर दिया है) और तारा काकी जवाब देतीं हैं,’घणो हारु करयो’ (बहुत अच्‍छा किया)। इनकी बोली से इनके सम्प्रदाय का पता नहीं चलता और न ही इस बात पर ये कुछ सोचतीं हैं। यही खासियत है हिन्दुस्तान की। इन दोनों को एक दूसरे से कोई भय नहीं है और सईदा चाची को गुजरात या मोदी से कोई मतलब नहीं है। भला है गाँवों में मोहल्ले नहीं होते।           

सोहराबुद्दीन एनकाउंटर: एक पहलू यह भी

सोहराबुद्दीन एनकाउंटर को लेकर जो शब्द सभी धर्मनिरपेक्ष और मानव अधिकार वाले उपयोग में ला रहे हैं वह है हिन्दु तालिबानी। हिन्दुत्व के नाम का स्यापा करने वाले यह भी जान लें कि इस एनकाउंटर में सोहराबुद्दीन और कौसर बी के साथ जिस तीसरे व्यक्ति को मारा गया उसका नाम तुलसी प्रजापत था। मीडिया ने इस नाम को उजागर क्यों नहीं किया। सोहराबुद्दीन मध्यप्रदेश का हिस्ट्रीशीटर था और उज्जैन जिले के झिरन्या गाँव में मिले एके 47 और अन्य ‍हथियारों में इसी का हाथ था। सोहराबुद्दीन के संपर्क छोटा दाउद उर्फ शरीफ खान से थे जो अहमदाबाद से कराची चला गया था। इसी शरीफ खान के लिए सोहराबुद्दीन मार्बल व्यापारियों से हफ्ता वसूल करता था। इस एनकाउंटर के पीछे सोहराबुद्दीन से त्रस्त व्यापारी भी माते जाते हैं। यह एक आपराधिक घटनाक्रम था जिसमें एक अपराधी को पुलिस ने मार गिराया। इस घटना को कितनी आसानी मीडिया ने धर्म का चोला पहना दिया। एक मुसलमान नहीं मारा गया बल्कि एक अपराधी मारा गया है। इसके साथ तुलसी भी मरा है। सोहराबुद्दीन, तुलसी और पुलिस तो परिदृश्य में नज़र आने वाली कठपुतलियाँ हैं इनको चलाने वाले हाथ उस पर्दे की पीछे हैं जो राजनीति और माफिया के नाते ताने से बुना गया है। नेपथ्य में जो भी है शायद मीडिया जानता भी होगा तो सामने नहीं लाएगा।
 
सोहराबुद्दीन के साथ मारा गया तुलसी प्रजापत कुख्यात शूटर था। किसी समय ठेले पर सब्जी बेचने वाला तुलसी कभी कभी पैसों के लिए छोटी-मोटी चोरियाँ भी कर लिया करता था। धीरे-धीरे इसने लूट, नकबजनी, डकैतियों को भी अंजाम देना शुरु कर दिया। बाद में यह शूटर बन गया, यह एक ही गोली में व्यक्ति का काम तमाम कर देता था। यह भी उज्जैन का हिस्ट्रीशीटर था। उज्जैन की भैरवगढ़ जेल में तुलसी की मुलाकात राजू से हुई। राजू छोटा दाउद उर्फ शरीफ खान के लिए काम करता था। राजू ने ही तुलसी की दोस्ती सोहराबुद्दीन के साथी लतीफ से कराई थी। यह वही अब्दुल लतीफ है जिसने अहमदाबाद में सायरा के जरिए ट्रक से हथियार ‍झिरन्या (उज्जैन) पहुँचाए थे।

सोहराबुद्दीन मध्यप्रदेश के उज्जैन जिले के झिरन्या गाँव का रहने वाला था। पारिवारिक पृष्ठभूमि अच्छी थी परंतु तमन्ना थी ट्रक ड्राइवर बनने की, इसी के चलते वह 1990 में इन्दौर के आशा-ज्योति ट्रांसपोर्ट पर ट्रक क्लीनर का काम करने लगा। सन 1994 में अहमदाबाद की सायरा नामक महिला ने एके 47 मध्यप्रदेश के लिए रवाना की थी और इस ट्रक का ड्राइवर उज्जैन जिले के महिदपुर का पप्पू पठान था और सहयोगी ड्राइवर सोहराबुद्दीन था। इस ट्रक का क्लीनर सारंगपुर का अकरम था। जब सायरा अहमदाबाद में पकड़ी गई तो उसने पप्पू के ट्रक में हथियार पहुँचाने की बात कबूली। पप्पू के पकड़े जाने पर अहमदाबाद पुलिस ने जाल बिछाया और सोहराबुद्दीन को जयपुर में पकड़ा। सोहराबुद्दीन के पास से सिक्स राउंड पिस्टल भी बरामद हुई थी जो कि मध्यप्रदेश मंदसौर के गौरखेड़ी गाँव से कासम से खरीदी गई थी। सायरा को अब्दुल लतीफ ने हथियार दिए थे। लतीफ के साथ ही सोहराबुद्दीन की पहचान समीम, पठान आदि माफियाओं से हुई थी। बाबरी ढाँचे के गिरने के बाद लतीफ ने ही छोटा दाउद उर्फ शरीफ खान से कराची से हथियार बुलवाए थे। शरीफ खान के कहने पर ही सोहराबुद्दीन ने रउफ के साथ मिल कर अमहमदाबाद के दरियापुर से हथियारों को झिरन्या पहुँचाया था। यहाँ पर हथियारों को कुएँ में छुपा दिया गया था। इस मामले में पप्पू और सोहराब सहित 100 लोगों पर अपराध कायम किया गया था। यह उसी समय की बात है जब संजय दत्त को हथियार रखने के अपराध में गिरफ्तार किया गया था। उसी समय झिरन्या कांड भी बहुत चर्चित हुआ था। यदि आप पुराने 94 के अखबारों में खोजेंगे तो झिरन्या हथियार कांड के बारे में मिल जाएगा।

मैं मालवा अंचल के बारे में आपको बताना चाहूँगा कि यह बहुत ही शांत क्षेत्र है और इसीलिए इस अंचल का उपयोग माफिया लोग फरारी काटने या अंडरग्राउंड होने के लिए करते हैं, यहाँ पर ये लोग वारदात करते क्योंकि ये अपराधियों की पनाहगाह है। अपराधी यहाँ अपराध इसलिए नहीं करते कि यहाँ पर कोई भी वारदात होने से यह जगह भी पुलिस की नज़रों और निशाने पर आ जाएगी। मालवा छुपने के लिए बहुत ही मुफीद जगह है। यहाँ की शांति की वजह से यहाँ पर पुलिस की सरगर्मियाँ भी दूसरे राज्यों के मुकाबले कम रहतीं हैं। अन्य राज्यों के फरार सिमी कार्यकर्ता भी यहीं से पकड़े गए हैं। सोहराबुद्दीन ने भी इन्दौर में छ: माह तक फरारी काटी थी।

अथ श्वानगाथा: Dogma of Dogs

कुत्ते इस बात पर नाराज हो ही गए कि उनके नाम को मनुष्य जब-तब जहाँ-तहाँ घसीटता रहता है। आखिर कब तक यह सब सहते रहेंगे। कोई तो सीमा होनी चाहिए। अब तो चिट्ठाजगत में भी उनके नाम का दुरुपयोग हो रहा है और यह सब ‘कौवों के राजा’ अर्थात काकेश का किया धरा है। मोहल्ले का नाम ले लेकर हमें कोसा है।

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कुत्तों के मुखिया ने एक आपातकालीन बैठक बुलाई। उसने संबोधित किया, ‘हे श्वानवीरो, आज हम फैसला करके रहेंगे। यदि मनुष्य हमें इसी प्रकार बेइज्जत करता रहा तो हमें उस पर मानहानि का मुकदमा करना होगा। फ़िल्मों में हमेशा विलेन को हमारे नाम से ही गालियाँ दी जाती रहीं हैं। ये काम सबसे ज्यादा धरमिंदर ने किया है। हमारे दादा के जमाने में सत्तर के दशक में पूरे देश में इनका डायलॉग गूँजा था – बसंती इन कुत्तों के सामने मत नाचना – उसने क्या सोचा था कि देश के सारे कुत्ते बसंती का नाच देखने को ही उधार बैठे थे और यदि उसका नाच देख भी लेते तो क्या पहाड़ टूट जाता।’
एक युवा कुत्ते ने समझाया, ‘दद्दा, वो हमें नहीं गब्बर और उसके साथियों को कुत्ता कह रहा था।’
मुखिया ने तनिक गुर्राया और बोला, ‘हाँ यही तो तकलीफ है कि हमारी तुलना गब्बर और उसके गिरोह से की गई। बेशक हमारे गिरोह होते हैं। परंतु हम लूटपाट नहीं करते। अरे हम तो अपने पेट से अधिक कभी नहीं चाहते। फिर भी ये इंसान हमेशा हमारे नाम लेकर एक दूसरे को गरियाता है।’
‘सबसे अधिक नाराज़ तो मैं इसी धरमिंदर से हूँ, हर दूसरी फ़िल्म में बोलता है – कुत्ते, कमीने मैं तेरा ख़ून पी जाऊँगा – जैसे हमारा ख़ून कोई कोल्ड्रिंक है। अरे ये इंसान हमारा ख़ून पी ले तो उसके ख़ून में भी वफादारी आ जाए, पिए तो सही एक बार।

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कुत्तों का सचिव गंभीर होकर बोला, ‘ये तो बिलकुल ग़लत है कि उसने कुत्ते के साथ कमीना भी कहा। कोई भी कुत्ता कमीना नहीं होता। एक टुकड़ा भी रोटी का दिया तो जिन्दगी भर साथ दिया है हमने। और तो और कई बार फ़िल्मों का विलेन कोई नेता होता है, तब भी वही डायलॉग – कुत्ते, कमीने….. – ये तो हद हो गई, इन नेताओं से तो गब्बर ही अच्छा था उसके उसूल तो थे।

कुछ कुत्ते नए जमाने के थे, तकनीक वगैरह में भी दखल रखते थे, उनमें से एक बोला, ‘अभी पिछले दिनों हिन्दी चिट्ठाजगत के धुरंधर व्यंग्यकार स्वामी समीरानंद ने मूषकों की व्यथा कही थी। चूँकि वे हमेशा व्यंगात्मक लेखन करते हैं, इसलिए मैं समझा वे कम्प्यूटर के माउस को मूषक कह कर मौज ले रहे होंगे। मैं तो माउस के बारे में कुछ नया सोच कर उनके चिट्ठे पर गया था, वहाँ देखा तो वे भगवान गजानन के वाहन मूषक की बात कर रहे थे। उनके चिट्ठे से एक बात मालूम हो गई कि लोगों के घर के सामने पड़े मरे चूहों को हमारे जिन साथियों ने खाया वे मर क्यों गए। दरअसल वे मनुष्य द्वारा रखी गई चूहामार दवा से मरे चूहे थे पर हमारे लिए तो यह फ़ूड पॉइज़निंग का केस हो गया।’

शेम-शेम शेम-शेम के स्वर सुनाई देने लगे।

कुछ दुर्लभ कुत्ते, जिन्होंने नेताओं को काट लिया था, कहने लगे, ‘अच्छा मौका है हम चूहों से गठजोड़ कर लेते हैं। वे भी इंसानों से परेशान हैं, हमारे पक्ष में जरूर आ जाएँगे। बदले में हमें उनके लिए बिल्ली पार्टी के विरुद्ध कैम्पेन कर देंगे। वैसे भी बिल्ली पार्टी से हमारे मतभेद हमेशा रहे हैं।’

इतना सुनते ही मुखिया भड़क उठा, ‘तुम चुप ही रहो तो अच्छा है। नेताओं को काटने से उनके गुण तुममें आ गए हैं, उन्हीं की भाषा बोलने लगे, अपना कुत्तत्व ही भूल गए, लानत है तुम पर।’
एक नन्हें छौने से श्वान शिशु ने उसकी माँ से पूछा, ‘माँ, ये कुत्तत्व क्या होता है?’ 
‘बेटा, कुत्तत्व ही हमारी मूल प्रवृत्ति है, ये हमें जन्म से मिलती है। एक मनुष्य अपना मनुष्यत्व छोड़ सकता है परंतु हम कुत्तत्व कभी नहीं छोड़ते‘, माँ ने गर्व से कहा।      
तभी एक किशोर कुतिया बोली, ‘दादू-दादू, ये इंसान हमेशा हमारी पूँछ को लेकर हमारा मजाक उड़ाता रहता है कि कुत्ते की पूँछ टेढ़ी की टेढ़ी।’
बूढ़े मुखिया ने समझाया, ‘नहीं नहीं, तुम मनुष्यों की कहावतों पर ध्यान मत दो। ये मनुष्य जानवरों पर कहावत भी बनाता है तो उसकी अपनी समझ से, जो कि हम जानवरों से बहुत कम है। हमारी पूँछ हमेशा टेढ़ी रहती है और वह हमारे चरित्र की दृढ़ता का प्रतीक है। ऐसी चारित्रिक दृढ़ता मनुष्य में कहाँ, उसकी पूँछ होती तो वह कोशिश कर भी सकता था। बेटी तुम्हें अपनी टेढ़ी पूँछ पर गर्व होना चाहिए। तुम देख लो किसी भी कुत्ते की पूँछ कभी सीधी नहीं होती। कुत्ता कितना ही कुपोषित क्यों न हो जाए उसकी दुम का अंतिम सिरा मुड़ा हुआ ही मिलेगा, अर्थात् भूख भी हमें अपने चरित्र से नहीं डिगा सकती, और ये मनुष्य है कि सात पीढ़ीयों के लिए भंडार भरा है फिर भी नीयत डोलती रही है।

किशोरी ने फिर अपनी बात रखी, ‘दादू, ‘क’ से कुत्ता होता है, परंतु वो जितेन्द्र सुता (मेरा पन्ना वाले नहीं, फ़िल्म स्टार जीतेंदर की पुत्री) है ना, वो टीवी पर ‘क’ से शुरु होने वाले बड़े ही भीषण सीरियल बनाती रहती है। मुझे तो देख कर डर लगता है। पता नहीं ये मनुष्य रोज इन सीरियल्स को कैसे देख लेता है। देखता ही बल्कि वैसी हरकतें भी करने लगा है। इसका बिजनेस बिगाड़ा, उसका घर उजाड़ा, हमेशा विध्वंस की ही बात होती रहती है, जैसे इनके जीवन में, धरती में कुछ अच्छा है ही नहीं।

दादू ने समझाया, ‘बेटी, यदि ये सीरियल नहीं होते तो भी ये मनुष्य बिगाड़ना, उजाड़ना, विध्वंस जैसे काम करता ही करता। आतंकवादियों ने ‘क’ वाले सीरियल थोड़े ही देखे थे।’

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एक छोटे सहमे कुत्ते ने भी शिकायत की, ‘दादू, हमारी प्रजातियों में से एक प्रजाति की पूँछ मनुष्य काट देता है। कहता है कि अधिक लंबी है जो हमारी ट्रेनिंग में भागने दौड़ने में उलझती है। मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि भला पूँछ भागने में बाधा कैसे हो सकती है वह तो दौड़ते समय, कूदते समय, मुड़ते समय संतुलन बनाने में सहायक होती है।’

इस बात का किसी के पास कोई जवाब नहीं था।

उस छोटे कुत्ते ने अपनी बात जारी रखी, ‘हमारी कई प्रजातियाँ बड़े बालों वाली है। ये बाल प्रकृति के अनुकूलन में ऐसे हुए हैं, पर मनुष्य उन्हें अपने हिसाब से काट-छाँट देता है और सोचता है कि हमें सजा रहा है। हमें ठंड लगे या गर्मी इससे उसे कोई मतलब नहीं। कई बार हमारी दौड़ करवाता है, नकली खरगोश के पीछे हमें दौड़ाता है। हमें तो बाद में पता चलता है कि खरगोश नकली था। हम भोले जीव हर बार खरगोश को असली समझ कर दौड़ जाते हैं।’  

यह सुनकर एक हड़का कुत्ता (हड़का कुत्ता वो कुत्ता होता है जिसमें मनुष्य के कुछ गुण आ जाते हैं और वो अपने वालों को भी काट लेता है) बीच में बोल उठा, ‘अरे नन्नू बोल तो सई, किसके पेट में इंजेक्शन लगवाना है। बस मेरे काटने की ही देर है।’

मुखिया ने उसे चुप किया और अचानक कुछ याद करते हुए बोले, ‘असल बात तो हम भूल ही गए, हम यहाँ पर कागाधिराज काकेश के कारण इकट्ठा हुए हैं। उन्होंने हम पर बहुत ही ग़लत इल्जाम लगाए हैं। उन्होंने लिखा है कि एक मोहल्ले में आजकल कुछ कुत्तों ने डेरा जमा लिया है और हर आने जाने वाले पर पहले गुर्राते हैं फिर काट लेते हैं। ये तो बिलकुल ही ग़लत बात है। हम कुत्ते शुरु से ही एक नहीं हर मोहल्ले में रहते आए हैं। हम न हों तो मोहल्ला वीरान हो जाए। हर कुत्ते का अपना समूह होता है और कुत्तों के हर समूह का एक मोहल्ला होता है। हमारी अपनी सीमाएँ होती हैं। उसमें हम दखलंदाजी पसंद नहीं करते। जैसे ही किसी कुत्ते ने दूसरे मोहल्ले में प्रवेश किया तो उस मोहल्ले का पूरा गुट उसे मोहल्ले से बाहर खदेड़ का आता है और दूसरे मोहल्ले की सीमा शुरु होते ही हम आगे नहीं जाते, वहाँ से वापस लौट आते हैं। गौर करें कि हमें न तो अपनी सीमा मे किसी का, यहाँ तक कि कुत्तों तक का भी अतिक्रमण पसंद है ना ही हम किसी दूसरे की सीमा में अतिक्रमण करते हैं। पर ये इंसान हमेशा दूसरे के फटे मे टांग अड़ाता रहता है। फिर गुर्राने और काटने की बात अर्द्धसत्य है। देखिए, दिन में तो हम काटते ही नहीं। हम प्रकृति के साथ चलने वाले जीव हैं। अरे भई रात होती है सोने के लिए, उस समय कोई मनुष्य गली में निकल आए तो हम उसे दौड़ा लेते हैं कि भाई घर जाकर सोजा। अब इसमें क्या ग़लत है। हाँ कुछ नालायक कुत्ते दिन में भी भागदौड़ का खेल खेलते रहते हैं, यह ज़रूर ग़लत है। और फिर हम अपने मोहल्ले की सीमा तक ही दौड़ाते हैं और भौंक भौंक कर अगले मोहल्ले को आगाह कर देते हैं कि भाई लोगों, भेज रहे हैं एक को, सम्भाल लेना। यदि व्यक्ति बाइक पर हो तो उसे धूम ईश्टाइल की भी प्रेक्टिस करा देते हैं।’

‘दूसरी बात हम कुत्तों का कोई हिडन एजेंडा नहीं होता। यह नितांत मानवीय गुण है। यह हममें नहीं पाया जाता।’
 
‘रही बात ‘सारा’ बिटिया की तो उसे कुत्तों ने नहीं पाखंडी इंसानों ने ही डराया है। अरे हम तो उसे भौंक भौंक कर चेताते रहते हैं कि सारा अभी तुम हमारी तरह निश्छल हो, इन बड़े लोगों के पाखंड में मत फँसना। बड़ी होकर किसी भी बात को सही ग़लत अपनी समझ से आँकना। हमेशा खुली हवा में साँस लेना। ये ढोंगी तुम्हें कुएँ का मेढक बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखेंगे। वो तो हमारी बात समझ जाती है पर बड़े नहीं समझते क्योंकि उनके दिमाग पर ज्ञान के अनेक आवरण पड़े रहते हैं।’
 
‘और भला ये मोहल्ले के कुत्तों को अवॉईड करने की क्या बात कही। समर्थन करना, बायकॉट करना, अवॉइड करना, ये सब इंसानो की फितरत है। अरे हम तो रात रात भर जाग कर मोहल्ले के हर घर की रखवाली करते हैं। हम तो किसी भी घर को अवॉइड नही करते, वो चाहे हिन्दु, मुसलमान, दलित, सवर्ण किसी का भी हो।
 
‘वर्चुअल डाकियों पर हमारे बुद्धिजीवी कुत्ते शोध कर रहे हैं इसलिए अभी नो कमेंट्स। परंतु जब से रीयल डाकियों ने खाकी ड्रेस पहनना छोड़ दिया है हम उन्हें नहीं दौड़ाते हैं। खाकी पेंट शर्ट से बड़ा भ्रम रहता था। इसलिए हम सभी खाकीधारी को दौड़ा लेते थे। अब तो डाकिये नीली वर्दी पहनते हैं। इसलिए वे बेखटके डाक बाँट सकते हैं।’

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कुछ बुद्धिजीवी कुत्ते इतनी देर से सारी बातें सुन रहे थे। हालाँकि बुजुर्ग कुत्तों ने इन्हें बहुत समझाया था चंद किताबें पढ़ कर खुद को बुद्धिजीवी मत समझो। हर प्राणी अपनी बुद्धि से ही जीता है। ये इंसान ने ही बुद्धिजीवी-श्रमजीवी का भेद बना रखा है। बुद्धिजीवी मतलब मेहनत कौड़ी की नहीं और नाम व दाम जमाने भर का, उधर जो श्रमजीवी परिश्रम कर रहा है उस बेचारे के श्रम के फल का हिस्सा भी बुद्धिजीवी हड़प लेते हैं और श्रम करने वाले को दो जून की रोटी भी नसीब नहीं होती। 

बुद्धिजीवी कुत्ते बोले, ‘कागभुसुंडि काकेश अपने वालों का ही ख्याल रखते हैं। अब देखिए हमारी तो लानत मलामत की और कौवों की तारीफ में पोस्ट लिख डाली। ढूँढ ढूँढ कर कविताएँ भी डाली हैं कौवों के लिए। भगवान कृष्ण के हाथ से कौवे माखन रोटी ले जाते हैं। वाह! क्या किस्मत है कौवों की? यदि दरवाजे पर या मुंडेर पर कौवा बोले तो शुभ होता है, उसकी चोंच सोने से मढ़ा देंगे और यदि हम जरा दरवाजे पर भौंक दें तो हमें डंडा मार कर भगा दिया जाता है। रात को कभी कभी हम अपने दुख व्यक्त करने के लिए हूऽऽऽऽऽ हूऽऽऽऽऽऽ करके थोड़ा रो लें तो उसे अपशकुन माना जाता है। हमने बहुतेरा ढूँढा पर हमें कुत्तों पर कोई कविता नहीं मिली। अलबत्ता हमारी वफादारी पर कुछ आलेख जरूर मिल जाते हैं।’

एक कवि प्रकृ‍‍ति कुत्ता बोला, ‘काश दुष्यंत कुमार हम पर ही कुछ लिख देते, जैसे उन्होंने साँप के लिए लिखा था।

श्वान, तुम सभ्य तो हुए नहीं,
भले ही नगर में आया बसना,
एक बार पूछूँ उत्तर दोगे,
क्यों (मनुष्यों जैसे) सीखा काटना, दुम हिलाना।

कवि कुकुर ने कहा, ‘और इस सभा की रिपोर्टिंग के लिए कोई चिट्ठाकार बुलाया है या नहीं?’

इस पर इंटरनेट का लती कुत्ता बोला, ‘हाँ, बिलकुल लाए हैं, अभी पिछले दिनों चिट्ठाकार भाटियाजी सभी चिट्ठाकारों को आईना दिखा कर चिट्ठा हिट करने के नुस्खे बता रहे थे। इनके 20 वें नंबर के नुस्‍खे में लिखा ‍है कि चिट्ठा ‘म’ से शुरु होना अच्छी बात होती है। इसलिए मैं ‘मालव संदेश’ वाले अतुल शर्मा को ले आया हूँ।’

सारे श्वान कुछ दुखी हो गए। आखिर कवि कुत्ते से रहा न गया, उसने कहा, ‘ये किस चूँ चूँ के मुरब्बे को पकड़ लाए। इसका हिट काउंटर देखा है, दहाई का आँकड़ा भी पार कर ले तो गनीमत है। कम से कम उड़न तश्तरी वाले समीर लाल को लेकर आते तो वो हमारे लिए पोस्ट के अंत में एक कविता तो लिखते-

इंसानो ने काम किए पर,
कुत्तों पर इल्जाम हो गया।

नेट वाले कुत्ते ने समझाया, ‘भाई, एक ये बंदा ही काम से भी फुरसतिया था इसलिए इसे ही ले आए। ये ज्यादा लिखता करता तो है नहीं, बस इधर उधर टिपियाता रहता है और आधी से ज्यादा टिप्पणियाँ तो मॉडरेशन की भेंट चढ़ जातीं हैं।’   

अंत में एक श्वान जो कुछ ज्यादा ही बुद्धिजीवी था, इतना ज्यादा कि शोध वगैरह भी करता रहता था, उसने अपने शोध कार्य से जो निष्कर्ष निकाला था उसे सभी कुक्कुरों के सामने रखा।
उसने बताया, ‘ये जो मनुष्य आज कहता फिरता है – मेरा शानदार बंगला, मेरी शानदार गाड़ी, मेरे शानदार कपड़े, जूते, शानदार ये, शानदार वो। इसके पीछे पुरातात्विक कारण हैं।’
‘हम कुत्तों को पालना प्राचीन काल से ही बहुत सम्मान का कार्य माना जाता था। यहाँ तक कि धर्मराज युधिष्ठिर के स्वर्गारोहण के समय उनका कुत्ता ही धर्म के रूप में उनके साथ गया था। उनके भाईयों और पत्नी ने रास्ते में ही साथ छोड़ दिया था परंतु कुत्ते ने अंत तक साथ निभाया था। धर्मराज ने स्वर्ग के यान में चढ़ने के लिए शर्त रखी थी कि ये कुत्ता भी उनके साथ स्वर्ग में जाएगा अन्यथा वे भी स्वर्ग में नहीं जाएँगे।’
‘प्राचीन काल में जो लोग कुत्ता पालते थे उन्हें सम्मान से ‘श्वानदार’ कहा जाता था। यही ‘श्वानदार’ शब्द बिगड़ कर ‘शानदार’ हो गया और आज हर श्रेष्ठ वस्तु के लिए मनुष्य कहता है ‘शानदार’।’

सभी श्वान साधु-साधु कर उठे। उनके पंचम स्वर में साधु-साधु सुनकर लोगों की नींद खुल गई और उन्होंने कुत्तों पर पत्थर फेंकना शुरु कर दिए। पत्थरों की बरसात होते ही सारी श्वान बिरादरी तितर-बितर हो गई और भागते भागते अगली मीटिंग का समय और ऐजेंडा तय करती गई।

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उद्घोषणा (बतर्ज काकेश भाई): ये आलेख कागाधिराज काकेश महोदय और स्वामी समीरानंद के चिट्ठों पर जाने से मिले संक्रमण के कारण बन गया है। इसलिए तेरा तुझको अर्पण के भाव से ये आलेख इन्हीं को समर्पित है। दिमाग के इस फितूर का किसी भी जीवित या अजीवित व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है। यदि ऐसा होता है तो इसे कोई कारण संयोग माना जाना चाहिए। यदि कोई श्वानों के पक्ष या विपक्ष में कोई बात रखना चाहता है तो टिप्पणी के माध्यम से कह सकता है। टिप्पणियाँ केवल श्वानों पर ही स्वीकार की जाएँगी। अनाम टिप्पणियाँ श्वानों की ओर से स्वीकृत की जाएँगी।  

चिट्ठाजगत का ‍फ़िल्मोत्सव

कल ऑफ़िस से घर जाते समय कुछ सोच विचार चल रहा था। विचार तो मस्तिष्क में हमेशा ही चलते रहते हैं, एक क्षण के लिए भी रुकते नहीं हैं। जब हम सो जाते हैं तो हमारा अवचेतन कुछ न कुछ जुगाली करता रहता है। ऐसे अचानक दिमाग में यह बात कौंधी कि यदि चिट्ठा जगत में ‍फ़िल्म निर्माण हो तो क्या नाम होंगे, फिर तो कल्पना के घोड़े हवा से बातें करने लगे। चिट्ठाकारों द्वारा फ़िल्म निर्माण नहीं बल्कि चिट्ठों की वर्चुअल दुनिया की ‍फ़िल्में। भले ही चिट्ठा जगत वर्चुअल रियलिटी है परंतु कल्पना लोक में विचरने का आनंद तो मैंने ले ही लिया। तो देखिए ‍फ़िल्मों की कुछ बानगी –
1. मैं टिप्पणी तेरे ‍चिट्ठे की (मैं तुलसी तेरे आँगन की)
2. चिट्ठे वाले टिप्पणियाँ ले जाएँगे (दिल वाले दुल्हनिया ले जाएँगे)
3. दो पोस्ट बारह टिप्पणी (दो आँखें बारह ‍हाथ)
4. जख़्मी चिट्ठा (जख़्मी दिल)
5. टिप्पणी दे के देखो (दिल दे के देखो)
6. टिप्पणी करो सजना (माँग भरो सजना)
7. एक चिट्ठा दो चिट्ठाकार (एक फूल दो माली)
8. तुमसा नहीं चिट्ठा (तुमसा नहीं देखा)
9. सात रंग के चिट्ठे (सात रंग के सपने)
10. हम टिप्पणी दे चुके सनम (हम दिल दे चुके सनम)
11. टिप्पणी का कर्ज (दूध का कर्ज, खून का कर्ज)
12. चिट्ठा, टिप्पणी और पोस्ट (पति, पत्नी और वो)
13. चिट्ठे की सौगंध (चरणों की सौगंध)
14. जिस फ़ीड में चिट्ठा रहता है (जिस देश में गंगा रहता है)
15. हम आपको सब्सक्राइब करते हैं (हम आपके दिल में रहते हैं)
16. प्रोफ़ाइल हो तो ऐसी (बीवी हो तो ऐसी)
17. टिप्पणी वही जो चिट्ठाकार मन भाए (दुल्हन वही जो पिया मन भाए)
18. चिट्ठा सजा के रखना (डोली सजा के रखना)
19. द बर्निंग ब्लॉग (द बर्निंग ट्रेन)
20. चिट्ठे पे चिट्ठा (सत्ते पे सत्ता)
21. पोस्ट जो बन गई टिप्पणी (बूँद जो बन गई मोती)
22. ख़ून भरी पोस्ट (ख़ून भरी माँग)
23. उधार का चिट्ठा (उधार का सिंदूर)
24. हर वक़्त चिट्ठे को गुस्सा क्यों आता है (अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है)
25. टिप्पणी भी दो यारों (जाने भी दो यारों)
26. मैंने चिट्ठा लिखा (मैंने प्यार किया)
27. मैंने चिट्ठा क्यों लिखा (मैंने प्यार क्यों किया)
28. मैं चिट्ठे की दीवानी हूँ (मैं प्रेम की दीवानी हूँ)
29. आया चिट्ठा झूम के (आया सावन झूम के)
30. बरसात की एक पोस्ट (बरसात की एक रात)
31. चिट्ठा हिन्दुस्तानी (राजा हिन्दुस्तानी)
32. आना है तेरे चिट्ठे में (रहना है तेरे दिल में)
33. चिट्ठे के साइड इफ़ैक्ट्स (प्यार के साइड इफ़ैक्ट्स)
34. फिर लिखेंगे (फिर मिलेंगे)
35. चिट्ठाकार बनाया आपने (आशिक बनाया आपने)

तो आपको कैसा लगा यह फ़िल्मोत्सव?
‍फ़िल्में तो और भी हो सकतीं हैं। मुझे तकनीकी पक्ष की अधिक जानकारी नहीं है जैसे क्षमल (xml), एटम फ़ीड, बैक लिंक, टेम्पलेट, सर्वर, होस्ट, ब्राउज़र, जावा स्क्रिप्ट, विजेट्स इत्यादि। यदि पाठक चाहें तो तकनीक से संबंधित शीर्षक जोड़ सकते हैं।

और अब हिन्दू शर्ट भी

आज रविरतलामीजी के चिट्ठे रचनाकार में असग़र वजाहत का यात्रा संस्मरण पढ़ रहा था। अचानक चिट्ठे के दाईं ओर गूगल के विज्ञापन कर गई उसमें हिन्दू-इंग्लिश डिक्शनरी  विज्ञापन था। 

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मैंने इस लिंक को क्लिक करके देखा यहाँ पर पहुँचा। लिंक यह है।

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उस साइट पर ‘ए डिक्शनरी ऑफ़ उर्दू क्लासिकल हिन्दू एंड इंग्लिश, डीलक्स 2006 एडिशन’ से मुलाकात हुई। इसी की दाईं ओर ‘हिन्दू शर्ट’ भी है। इन लिंक्स पर जाने पर पता नहीं लगा कि इस डिक्शनरी में क्लासिकल हिन्दू क्या है और ये शर्ट हिन्दू क्यों है। यहाँ शायद हिन्दी को ग़लती से हिन्दू लिख दिया गया है। ये शर्ट आम शर्ट हैं और ईबे द्वारा ऑनलाइन बेचे जा रहे हैं। इन पर कोई भी हिन्दू प्रतीक नहीं हैं।

अब इसे देख कर कोई ‘होहल्ला’ न मचाने लगे कि शर्ट पर भी हिन्दुओं का एकाधिकार हो गया है और हमें कुछ नहीं मिला। अल्पसंख्यकों के लिए इतने शर्ट अलग निकाल कर रख दिए जाएँ।

भैया हम का करें ई तो गूगलवा की ग़लत वर्तनी का कमाल है।

मुशर्रफ मंशा: श्रीनगर पर पाक झंडा

बेनजीर भुट्टो ने अपनी आत्मकथा ‘डाटर ऑफ़ ईस्ट’ में जोड़े गए नए अध्याय में खुलासा किया है कि परवेश मुशर्रफ ने 1996 में उनसे श्रीनगर पर नियंत्रण कर वहाँ पाकिस्तानी झंडा फहराने की अनुमति माँगी थी। एक पाकिस्तानी साप्ताहिक पत्रिका ने भुट्टो की आत्मकथा के कुछ अंश प्रकाशित किए हैं जिसमें बताया गया कि यदि बेनजीर आदेश दें तो मुशर्रफ श्रीनगर पर पा‍किस्तान का नियंत्रण होगा। बेनजीर के कथनानुसार उन्होंने इसकी इजाज़त नहीं दी। समाचार यहाँ से लिया गया है।
पता नहीं भारतीय गु्प्तचर तंत्र को इसकी जानकारी थी भी या नहीं। हो सकता है जानकारी हो परंतु सामरिक कारणों से इसे उजागर नहीं किया गया हो। वैसे आशंका यही है कि भारतीय तंत्र इस षडयंत्र के बारे में बेख़बर चैंन की बंसी बजा रहा हो क्यों‍कि तीन साल बाद 1999 में इसी मुशर्रफ ने कारगिल पर हमला किया था। अभी इस आत्मकथा के बाज़ार में आने की कोई ख़बर नहीं है। फिर भी जब कभी यह आती है तो भारत के लोगों की सामान्य प्रतिक्रिया यह होगी कि पाकिस्तान विरोधी नारे लगाए जाएँगे, कुछ रैलियाँ-जुलूस वगैरह निकाले जाएँगे और पुतला दहन भी रखा जा सकता है। कुछ दिनों तक यह तमाश चलेगा, मीडिया इस मुद्दे को भुनाएगा और सब शांत हो जाएगा। जनता फिर साह-बहू के सीरियल में निमग्न हो जाएगी। हमारे इसी चरित्र के कारण आज नहीं तो कल निश्चित रूप से ऐसा हो सकता है कि मुशर्रफ नहीं तो कोई और पाकिस्तानी शासक श्रीनगर पर पाकिस्तानी झंडा फहरा दे।

बाज़ार की बयार

[इस आलेख को लिखने वाले स्वयं को सीटीवादक कहलाना पसंद करते हैं। यहाँ ये इसी नाम से आलेख देना चाहते हैं। अब सीटीवादक नाम क्यों, ये तो वे स्वयं ही अपने शब्दों में कभी बताएँगे तो मैं और आप भी जानेंगे, परंतु मैंने इस सीटी बजाने का कुछ अंदाज लगाया है। देश के नेता जो देश के साथ कर रहे हैं तो इस पर इनके उद्‍गार होते हैं, इन नेताओं ने देश की सीटी बजा रखी है, या फिर भारतीय टीम के हारने पर, ढंग से सीटी भी नहीं बजा सकते, या फिर बरमुडा को हराने पर, भारतीय टीम ने क्या मस्त सीटी बजाई। कभी कभी कोई काम बिगड़ जाता है तो वे सीटी से किसी और वाद्य पर शिफ़्ट हो जाते हैं और कहते हैं, अरे इसमें तो रणभेरियाँ और ‍तुरहियाँ बजी हुईं हैं, या फिर कहेंगे, बुरी तरह से नगाड़े बजा रखे हैं। कोई काम बहुत अच्छा होने पर कहते हैं, बहुत ही सुर में बजाई हैंजीविका के लिए ये कलम घिसते हैं और कलम के फल अर्थात् समाचार पत्रों से ख़फ़ा नज़र आते हैं। इस आलेख में उन्होंने यही आक्रोश व्यक्त किया है।]  

बाज़ार की बयार

हर व्यक्ति का रोज़ सुबह अख़बार के पन्नों से तो पाला पड़ता ही है। वैसे आजकल पाला तो दिसंबर जनवरी में भी नहीं पड़ता, हाँ गर्मी ज़रूर सुरसा की तरह मुँह फैला रही है। ख़ैर बात समाचारों की कर रहा था। आज सुबह के अख़बार ही शेयरों के औधें मुँह गिरने की मुख्य ख़बर थी। एक नज़र दूसरे पन्नों की ख़बरों पर भी। सिनेमा के विज्ञापन वाले पृष्‍ठ पर मल्लिका शेरावत अपने आधे उरोज़ और अधोवस्त्र की प्रदर्शनी लगाकर अपनी आपको फिल्म देखने के लिए खुला आमंत्रण दे रही हैं कि दम है तो देखो नहीं तो…. पेज ३ पर अधेड़ और जवाँ प्रतिष्ठित हस्तियों (?) के मदहोश, अधनंगे चित्रों की बाढ़-सी लगी हुई है। एक और ख़बर है कि अमेरिका में डेटिंग कि जगह हुक अपने ले ली है। हुक अप एक नया चलन है जो आधुनिक बाज़ार के हिसाब से डिस्पोज़ल जैसा है। यानी यूज़ एंड थ्रो। इसने युवाओं के बीच एक नई कहावत का जन्म दिया है कि मांस खाओं हड्डी गले मत बाँधो। एक जगह वैद्यराज की सलाह वाले कॉलम में नीक हकीम ख़तराए जान की तर्ज पर वैद्यराज जी एक जवान पाठिका की व्यक्तिगत परेशानी का समाधान दे रहे हैं जो कि अपने प्रेमी के शीघ्र पतनसे व्यथित है। वह अपने आपको पतितनहीं मानती और प्रश्न उसके द्वारा पूछे जाने का कारण भी बताती है कि उसके प्रेमी को यह सब पूछने में शर्म आती है। वर्गीकृत विज्ञापन पर नज़र डालें तो हेल्थ वर्ग में अनोखे मसाज़ पार्लर के इश्तहार में मसाज़ से अधिक वर्णन मसाज़ करने वाली/वाले लोगों का ज़िक्र ज़्यादा रहता है। एसे विज्ञापन अख़बारों के पूरे माह या साल भर के विज्ञापन छूट का लाभ अवश्य लेते हैं। आवश्यकता है के कॉलम में सिर्फ़ स्मार्ट लड़के लड़कियाँ ही चाहिए होती हैं। विज्ञापन पढ़कर ऐसा लगता है जैसे उन्हें काम नहीं करना पड़ेगा बल्कि किसी फैशन शो में हिस्सा लेने के लिए आमं‍त्रित किया जा रहा है। एक सर्वे की रिपोर्ट छपती है कि संसार में समलैंगिक पुरुषों की संख्या सामान्य पुरुषों कि तुलना में कहीं ज़्यादा हो गई है। फिल्मी कॉलम में एक हिरोइन का बयान छपता है कि फिल्म इंडस्ट्री में कोई ऐसी लड़की नहीं है जो डायरेक्टर का बिस्तर गरम नहीं करती। कुल मिलाकर समाचार पत्र भी कुछ चैनलों की तरह (बेचारे दूरदर्शन को छोड़कर) अपसंस्कृति ही परोस रहे हैं, हालाँकि इसमें भी अब संक्रमण होने लगा है। आजकल हर बड़े अख़बार ने सिटी के पन्ने के नाम से सीटी बजाना शुरू किया है जिसमें समझने लायक कुछ नहीं लिखा होता सिवाय प्रायोजित फ़ोटो और बेहूदा कार्यक्रमों के। इसी तरह हर गली मुहल्ले के केबल वाले भी रात को कुछ निश्चित कार्यक्रम दिखाते हैं जिनके दर्शक सुबह उठकर सबसे पहला काम सभ्यता को रौंदने का ही करते हैं। ज़्यादातर लड़कियाँ रोड पर चलते हुए अपनी देह की परीक्षा देती हुई नज़र आती हैं। अगर किसी मनचले ने उनको छेड़ दिया या उनका मोबाइल नंबर माँग लिया तो समझो वे अपनी देह परीक्षा में पास हो गईं और कल से रिज़ल्ट हाथ में आने का इंतज़ार करती नज़र आती हैं। स्कूल-कॉलेज और गलियारे से निकलकर यह जवान कुसंस्कृति बाग़-बग़ीचों में भी कुछ-कुछ करते हुए दिख जाती है। बेचारे बुजुर्गों को वहाँ भी चैन नही।

बदलाव प्रकृति का नियम है। संस्कृति और सभ्यता भी बदलती है, लेकिन उसके मूल्यों में बदलाव आने का मतलब है कि वह राष्‍ट्र और समाज नष्ट होने की कगार पर है। वक्त की बयार की गति के साथ ही हमारी संस्कृति की रेत उड़कर कहीं और नया आकर लेती है। मुझे एक वाकया याद है कि एक साक्षात्कार में भूटान नरेश ने कहा था कि कैसे सैटेलाइट चैनलों के प्रसारण पर बाँध लगाकर उन्होंने अपने छोटे से देश की संस्कृति को बचाकर रखा। हमारे देश में प्रगति के मापदंड पर सेंसरशिप को अभिशाप माना जाता है, अनुपम खेर को केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से इसलिए बाहर कर दिया गया क्योंकि उनके समय में सबसे अधिक फिल्में जारी हुईं।

मुझे यह बात बहुत बुरी लगती है कि अपने राष्‍ट्र की संप्रभुता पर गर्व करने वाले हम भारतीय अपनी सांस्कृतिक संप्रभुता कि ज़रा-सी भर भी फ़िक्र नहीं करते। उसका कारण यही हो सकता है हमारे देश में फ्रांस की तर्ज पर कभी कोई सांस्कृतिक आंदोलन नहीं हुआ। यहाँ भी नवजागरण लाने की ज़रूरत है। जब अपनी सांस्कृतिक संप्रभुता को बचाने के लिए भूटान जैसा छोटा देश (भौगोलिक दृष्‍टि से छोटा लेकिन इस मामले में हमारे देश से बड़ा) कोई निर्णय लेने में नहीं झिझकता तो आखिर हम ऐसा किस लाभ के लिए कर रहे हैं। हमने मुक्त बाजार और वैश्विक अर्थव्यवस्था के नाम पर अपनी सांस्कृति धरोहरों को विदेशियों के हाथ गिरवी रख दिया। यह सब भारतीय संस्कृति पर डाला जाने वाला मीठा जहर है जिसे हम रोज़ अपने आस-पास देखते हैं, लेकिन पता नहीं क्यों कुछ बोलते नहीं। एक कहावत है कि जिस घर में लड़कियाँ नहीं होतीं उस घर में देहली तो है। मतलब यह कि आज आप के बच्चे इस अपसंस्कृति का शिकार भले नहीं बन रहे हों लेकिन आगे आने वाला कल भी तो आपके साथ है।

 लेखक: सीटीवादक