बाज़ार की बयार

[इस आलेख को लिखने वाले स्वयं को सीटीवादक कहलाना पसंद करते हैं। यहाँ ये इसी नाम से आलेख देना चाहते हैं। अब सीटीवादक नाम क्यों, ये तो वे स्वयं ही अपने शब्दों में कभी बताएँगे तो मैं और आप भी जानेंगे, परंतु मैंने इस सीटी बजाने का कुछ अंदाज लगाया है। देश के नेता जो देश के साथ कर रहे हैं तो इस पर इनके उद्‍गार होते हैं, इन नेताओं ने देश की सीटी बजा रखी है, या फिर भारतीय टीम के हारने पर, ढंग से सीटी भी नहीं बजा सकते, या फिर बरमुडा को हराने पर, भारतीय टीम ने क्या मस्त सीटी बजाई। कभी कभी कोई काम बिगड़ जाता है तो वे सीटी से किसी और वाद्य पर शिफ़्ट हो जाते हैं और कहते हैं, अरे इसमें तो रणभेरियाँ और ‍तुरहियाँ बजी हुईं हैं, या फिर कहेंगे, बुरी तरह से नगाड़े बजा रखे हैं। कोई काम बहुत अच्छा होने पर कहते हैं, बहुत ही सुर में बजाई हैंजीविका के लिए ये कलम घिसते हैं और कलम के फल अर्थात् समाचार पत्रों से ख़फ़ा नज़र आते हैं। इस आलेख में उन्होंने यही आक्रोश व्यक्त किया है।]  

बाज़ार की बयार

हर व्यक्ति का रोज़ सुबह अख़बार के पन्नों से तो पाला पड़ता ही है। वैसे आजकल पाला तो दिसंबर जनवरी में भी नहीं पड़ता, हाँ गर्मी ज़रूर सुरसा की तरह मुँह फैला रही है। ख़ैर बात समाचारों की कर रहा था। आज सुबह के अख़बार ही शेयरों के औधें मुँह गिरने की मुख्य ख़बर थी। एक नज़र दूसरे पन्नों की ख़बरों पर भी। सिनेमा के विज्ञापन वाले पृष्‍ठ पर मल्लिका शेरावत अपने आधे उरोज़ और अधोवस्त्र की प्रदर्शनी लगाकर अपनी आपको फिल्म देखने के लिए खुला आमंत्रण दे रही हैं कि दम है तो देखो नहीं तो…. पेज ३ पर अधेड़ और जवाँ प्रतिष्ठित हस्तियों (?) के मदहोश, अधनंगे चित्रों की बाढ़-सी लगी हुई है। एक और ख़बर है कि अमेरिका में डेटिंग कि जगह हुक अपने ले ली है। हुक अप एक नया चलन है जो आधुनिक बाज़ार के हिसाब से डिस्पोज़ल जैसा है। यानी यूज़ एंड थ्रो। इसने युवाओं के बीच एक नई कहावत का जन्म दिया है कि मांस खाओं हड्डी गले मत बाँधो। एक जगह वैद्यराज की सलाह वाले कॉलम में नीक हकीम ख़तराए जान की तर्ज पर वैद्यराज जी एक जवान पाठिका की व्यक्तिगत परेशानी का समाधान दे रहे हैं जो कि अपने प्रेमी के शीघ्र पतनसे व्यथित है। वह अपने आपको पतितनहीं मानती और प्रश्न उसके द्वारा पूछे जाने का कारण भी बताती है कि उसके प्रेमी को यह सब पूछने में शर्म आती है। वर्गीकृत विज्ञापन पर नज़र डालें तो हेल्थ वर्ग में अनोखे मसाज़ पार्लर के इश्तहार में मसाज़ से अधिक वर्णन मसाज़ करने वाली/वाले लोगों का ज़िक्र ज़्यादा रहता है। एसे विज्ञापन अख़बारों के पूरे माह या साल भर के विज्ञापन छूट का लाभ अवश्य लेते हैं। आवश्यकता है के कॉलम में सिर्फ़ स्मार्ट लड़के लड़कियाँ ही चाहिए होती हैं। विज्ञापन पढ़कर ऐसा लगता है जैसे उन्हें काम नहीं करना पड़ेगा बल्कि किसी फैशन शो में हिस्सा लेने के लिए आमं‍त्रित किया जा रहा है। एक सर्वे की रिपोर्ट छपती है कि संसार में समलैंगिक पुरुषों की संख्या सामान्य पुरुषों कि तुलना में कहीं ज़्यादा हो गई है। फिल्मी कॉलम में एक हिरोइन का बयान छपता है कि फिल्म इंडस्ट्री में कोई ऐसी लड़की नहीं है जो डायरेक्टर का बिस्तर गरम नहीं करती। कुल मिलाकर समाचार पत्र भी कुछ चैनलों की तरह (बेचारे दूरदर्शन को छोड़कर) अपसंस्कृति ही परोस रहे हैं, हालाँकि इसमें भी अब संक्रमण होने लगा है। आजकल हर बड़े अख़बार ने सिटी के पन्ने के नाम से सीटी बजाना शुरू किया है जिसमें समझने लायक कुछ नहीं लिखा होता सिवाय प्रायोजित फ़ोटो और बेहूदा कार्यक्रमों के। इसी तरह हर गली मुहल्ले के केबल वाले भी रात को कुछ निश्चित कार्यक्रम दिखाते हैं जिनके दर्शक सुबह उठकर सबसे पहला काम सभ्यता को रौंदने का ही करते हैं। ज़्यादातर लड़कियाँ रोड पर चलते हुए अपनी देह की परीक्षा देती हुई नज़र आती हैं। अगर किसी मनचले ने उनको छेड़ दिया या उनका मोबाइल नंबर माँग लिया तो समझो वे अपनी देह परीक्षा में पास हो गईं और कल से रिज़ल्ट हाथ में आने का इंतज़ार करती नज़र आती हैं। स्कूल-कॉलेज और गलियारे से निकलकर यह जवान कुसंस्कृति बाग़-बग़ीचों में भी कुछ-कुछ करते हुए दिख जाती है। बेचारे बुजुर्गों को वहाँ भी चैन नही।

बदलाव प्रकृति का नियम है। संस्कृति और सभ्यता भी बदलती है, लेकिन उसके मूल्यों में बदलाव आने का मतलब है कि वह राष्‍ट्र और समाज नष्ट होने की कगार पर है। वक्त की बयार की गति के साथ ही हमारी संस्कृति की रेत उड़कर कहीं और नया आकर लेती है। मुझे एक वाकया याद है कि एक साक्षात्कार में भूटान नरेश ने कहा था कि कैसे सैटेलाइट चैनलों के प्रसारण पर बाँध लगाकर उन्होंने अपने छोटे से देश की संस्कृति को बचाकर रखा। हमारे देश में प्रगति के मापदंड पर सेंसरशिप को अभिशाप माना जाता है, अनुपम खेर को केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से इसलिए बाहर कर दिया गया क्योंकि उनके समय में सबसे अधिक फिल्में जारी हुईं।

मुझे यह बात बहुत बुरी लगती है कि अपने राष्‍ट्र की संप्रभुता पर गर्व करने वाले हम भारतीय अपनी सांस्कृतिक संप्रभुता कि ज़रा-सी भर भी फ़िक्र नहीं करते। उसका कारण यही हो सकता है हमारे देश में फ्रांस की तर्ज पर कभी कोई सांस्कृतिक आंदोलन नहीं हुआ। यहाँ भी नवजागरण लाने की ज़रूरत है। जब अपनी सांस्कृतिक संप्रभुता को बचाने के लिए भूटान जैसा छोटा देश (भौगोलिक दृष्‍टि से छोटा लेकिन इस मामले में हमारे देश से बड़ा) कोई निर्णय लेने में नहीं झिझकता तो आखिर हम ऐसा किस लाभ के लिए कर रहे हैं। हमने मुक्त बाजार और वैश्विक अर्थव्यवस्था के नाम पर अपनी सांस्कृति धरोहरों को विदेशियों के हाथ गिरवी रख दिया। यह सब भारतीय संस्कृति पर डाला जाने वाला मीठा जहर है जिसे हम रोज़ अपने आस-पास देखते हैं, लेकिन पता नहीं क्यों कुछ बोलते नहीं। एक कहावत है कि जिस घर में लड़कियाँ नहीं होतीं उस घर में देहली तो है। मतलब यह कि आज आप के बच्चे इस अपसंस्कृति का शिकार भले नहीं बन रहे हों लेकिन आगे आने वाला कल भी तो आपके साथ है।

 लेखक: सीटीवादक

3 Responses

  1. सीटीवादक जी के सुरों का क्या कहना। वाह वाह!!
    सिटी जर्नलिज़म के नाम पर अख़बारों में भाषा और सामग्री की तो सीटियाँ बज ही चुकी हैं, और आपने भी सही-समय पर सही सुर लगा ही दिया। अब एक ही आशा है कि शीघ्र ही अपनी सीटियों को एक मंच दे दें ताकि इनकी आवाज़ एक-एक के कानों को सुकुँ दे सके। और ये शंखनाद जल्दी ही करिए, फिर न कहिएगा ”अरे गड़बड़ हो गई, अरे सी‍टी बज गई”

  2. सर, अच्छा और जरूरी आलेख!एक बात जरूर कहूँगा कि तकनीक के विरोध की जो बयार बही है और उस बयार में लाखो की तनख्वाह लूटते पत्रकार जब करोडो कमाती पत्रिका में कपास की नयी फसलों तथा बीजो की खिलाफत में लेखादि लिखते हैं तो क्या आपको ज़रा भी शक नहीं होता. मोंसंटो की बोल गार्ड तकनीक वाला यह कपास कितने लाख लोगो का जीवन सुधार चुका है, इसका पता मेरे सर्वाधिक प्रिय लेखक को जरूर होना चाहिए. कपास अगर नकदी फसल है तो इसमे कपास का क्या दोष? आप बी.टी बैगन या सब्जियों का विरोध जरूर करें पर जो नकदी फसल हैं जिनका खाने में कोइ इस्तेमाल नहीं, जिससे बरार क्षेत्र (तटीय आंध्र, तेलंगाना, महाराष्ट्र, सौराष्ट्र तथा हरयाणा पंजाब का मालव पत्ती) के जलहीन खेती क्षेत्र में और नुकसानदायक कीड़ो से आती पडी इस जमीन में मोंसंटो की इस तकनीक ने कितना उत्कृष्ट काम किया है, इसका अंदाजा लगाना उनके लिए मुश्किल है जो ये मान चुके है कि हर वक्त रोते रहना कला की एक मात्र तकनीक है, पर आपको नहीं. अगर इसा तकनीक को भारत सरकार ने रोयल्टी देकर खरीदा और अपने किसानो को दिया होता तो शायद ऐसी मुश्किल नहीं आती. वैसे आज कई सारी भारतीय कंपनियों ने अपनी नै तकनीक का विकास कर लिया है जैसे जे के सीड्स की एक्स-जीन तकनीक.दूसरे मेरी बात का यह मतलब ना ले कि मैं हर फसल की बी-टी. तकनीकीकरण का समर्थन कर रहा हूँ.पर सबको एक ही लाठी से नहीं हांका जा सकता है. और रहा सवाल जड़विहीन होने का तो कोई इंसान अपनी स्वेक्षा से ऐसा नहीं होता है. और इसी जड़विहीन होने ने समाज को जोसेफ कोनराड जैसा लेखक दिया. हम सब या तो जड़ विहीन है या कर दिए गए हैं.मैं अब यहाँ नौकरी नहीं करना चाहता, मैं बनारस जाना चाहता हूँ पर अच्छा या बुरा सच यह है कि जा नहीं सकता. आशा है आप मेरी बात का अन्यथा नहीं लेंगे..आपका चन्दन.

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