क्रिकेट ही नहीं अन्य बातों में भी बांग्लादेश भारत से आगे है

बांग्लादेश ने भारत को क्रिकेट में तो धूल चटा ही दी परंतु वह चरमपंथियों के विरुद्ध भी हमसे आगे है। बांग्लादेश में ‍बम विस्फोट करने वाले प्रतिबंधि इस्लामी संगठनों के अतिवादियों को मौत की सजा दे दी गई। यह कार्य निर्धारित समय से भी पहले बिना किसी चेतावनी के कर दिया गया क्योंकि सरकार को इनके समथर्कों द्वारा बदला लेने का आशंका थी। इन संगठनों ने बम विस्फोट की जिम्मेदारी लेकर कहा था कि वे बांग्लादेश में इस्लामी क़ानून लागू करने की लड़ाई लड़ रहे हैं। जरा ये ख़बर देखें।
बांग्लादेश भी चरमपंथियों का धर्म नहीं देखता है परंतु आज हमारे देश में कोई अफजल गुरु के बारे में बात करने वाला ही नहीं रहा। मीडिया और देश मिलकर क्रिकेट का स्यापा कर रहे हैं। जिसने देश की सर्वोच्च संस्था संसद पर हमला किया उसे बचाने के लिए हमारे ही नेता लगे हुए थे। उन्हें अपने वोट हाथों से खिसकते नज़र आ रहे थे। वे जानते थे कि भारत की जनता थोड़े ही दिनों मे सब कुछ भूल जाएगी और ऐसा हो भी गया है। देश के ‍मुस्लिमों के भड़क जाने का भय दिखाया गया था। सांप्रदायिक दंगों का भय दिखाया गया था। मानव अधिकार वाले भी छाती कूट रहे थे। इन्हें केवल आतंक फैलाने वाले ही मानव दिखाई देते हैं, जो विस्फोट में मारे गए या जो सुरक्षाकर्मी मारे गए वो तो रोबोट थे। देश की आम जनता का क्या जीना और क्या मरना। ‍जिन्दा भी है तो कीड़ों की जिन्दगी लिए रोज तिल तिल मरते हैं। आतंकवादी तो तारणहार हैं जिन्होंने आमजन को ऐसी जिन्दगी से मुक्ति दी है। भला उन्हें क्यों फाँसी दी जाए। उन्हें तो मुक्तिदाता के रूप में नियुक्त किया जाना चाहिए।
मीडिया भी इस बारे न कुछ छापता है और न कुछ दिखाता है। क्योंकि यहाँ से शायद कुछ नही मिलना है। पिछले दिनों कुछ चिट्ठों में भी तर्क दिए गए कि मुंबई में हुए दंगों का बदला लेने के लिए क्रमबद्ध विस्फोट किए। ऐसा सोचते तो कश्मीर के सारे पंडित आतिशबाज़ी कर रहे होते। वे लोग अपने जमीन से धर्म के नाम पर बेदखल हो गए, परंतु हथियार उठा कर ‍निर्दोषों से बदला नहीं लिया। हम मिलजुल कर रहते आए हैं और आगे भी रहेंगे। एक घर में भाइयों में अनबन हो जाती है परंतु एक दूसरे के बिना उनका अस्तित्व नहीं है। कुछ बुद्धिजीवियों को इन बातों से हिन्दुत्व की बू आ सकती है। तो हे ज्ञानियों, ज्ञान का चश्मा हटा कर इन बातों को धर्म से निरपेक्ष होकर तथा देश के सापेक्ष होकर देखना तभी सच्चे धर्मनिरपेक्ष कहलाओगे।

क्या नारद के प्रबंधकगण बता सकते हैं?

नारद के प्रबंधकगण, जो भी हैं, यह बताएँ कि क्या नारद पर प्रतिवर्ष जनवरी में अपने ब्लॉग का पंजीकरण कराना होता है. ऐसा इसलिए लिख रहा हूँ कि दिसंबर 2006 के बाद जनवरी 2007 से मेरी पोस्ट्स नारद पर नहीं आती थीं। फ़रवरी और मार्च मेरी यह, यह, यह और यह पोस्ट नारद पर नहीं दिखाई दी अर्थात् नारद पर मेरा चिट्ठा अपडेट नहीं हुआ। मैंने सोचा कि जब सब के चिट्ठे नारद पर आ रहे हैं तो फिर वर्डप्रेस डॉट कॉम पर गड़बड़ होगी परंतु वहाँ पर पोस्ट्स दिखाई देती थीं। इसके लिए मैंने परिचर्चा ब्लॉग/वेबसाइट संबंधी सहायता में एक में थ्रेड खोला क्योंकि नारद पर संपर्क का कोई विकल्प नज़र नहीं आया। इस थ्रेड को परिचर्चा के माध्यम से जीतू भाई और मिर्ची सेठ को संदेश भी भेजे। पर कोई जवाब नहीं मिला। बहुत दिनों से घुघूती बासूतीजी के प्रश्नों के उत्तर की पोस्ट वर्डप्रेस डॉट कॉम पर ड्राफ़्ट के रूप में रखी थी। आखिरकार कल मैंने सोचा ‍कि क्यों न नारद पर एक बार फिर पंजीकरण की प्रक्रिया दोहरा कर देखी जाए। मैंने फिर से अपने चिट्ठे का पंजीकरण नारद पर किया और प्रश्नोत्तर वाली पोस्ट को पोस्ट किया। चमत्कार! मेरा चिट्ठा नारद पर नज़र आ रहा था। इस चमत्कार का चक्कर क्या है कोई बता सकता है? या यह कोई तकनीकी त्रुटि थी?

घुघूती बासूतीजी के प्रश्नों के उत्तर

आज वर्ष प्रतिपदा है, सभी को नववर्ष की शुभकामनाएँ।
पिछले कई दिनों से चिट्ठा जगत में टैगिंग का कार्यक्रम चल रहा था और हम तो इस मामले में निश्चिंत थे कि हमें कोई टैग करने वाला नहीं है। हमें लग रहा था कि यह पहुँचे हुए चिट्ठाकारों के लिए ही बेहतर है कि वे उनकी चिट्ठाकारी के अनुभव लोगों के साथ बाँटें और स्वयं के बारे में बताएँ। अपने पास चंद पोस्ट्स के अलावा कोई अनुभव नहीं हैं जो लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया जाए। हम इस खेल को चुपचाप देखते रहे। धीरे धीरे सभी के उत्तर सामने आते जा रहे थे। नींव के पत्थरों को जानने समझने के अवसर मिल रहे थे। इस प्रश्नोत्तरी के चलते जब घुघूती बासूतीजी के पास प्रश्न पहुँचे तो उन्होंने पाँच में से एक हमें भी टैग कर लिया। घुघूती बासूतीजी अध्यापिका हैं इसलिए कम नंबर आने पर सजा भी मिल सकती है, जैसे फलाँ पोस्ट या टिप्पणी को दस बार लिखना। खैर सजा और पास-फेल का भय त्याग कर हम प्रश्नों के उत्तर तो दिए देते हैं। उत्तर देने में बहुत देर हो गई है अब तक टैगिंग का सारा ज्वार उतर गया है।
 प्रश्न क्र. 1  : एक अच्छी पुस्तक और एक अच्छे टीवी कार्यक्रम में से आप क्या चुनेंगे?
 उत्तर :       यदि पुस्तक और टीवी कार्यक्रम के बारे में पूछा जाता तो निश्चित रूप से पुस्तक को ही प्राथमिकता देता परंतु पुस्तक और टीवी कार्यक्रम दोनों के ही आगे अच्छा लिखा है इसलिए यदि टीवी कार्यक्रम अच्छा है तो मैं टीवी कार्यक्रम पहले देखना पसंद करूँगा क्योंकि हर टीवी कार्यक्रम दोबारा प्रसारित नहीं होते। पुस्तक अपने ही पास है इसलिए बाद में पढ़ी जा सकती है।
 प्रश्न क्र. 2  : यदि एक सप्ताह तक आपको कंप्यूटर से दूर रहना पड़े तो आपको कैसा लगेगा?
 उत्तर :      यहाँ कंप्यूटर का तात्पर्य शायद इंटरनेट से होना चाहिए। वाकई बहुत बुरा लगेगा। नेट से दूर रह कर ऐसा लगता है जैसे दुनिया कट गए हों। जब भी समय मिलता है नेट पर सीधे नारद या परिचर्चा पर पहुँचता हूँ। क्योंकि चिट्ठा जगत की हलचल जाने बिना मन को चैन नहीं।
 प्रश्न क्र. 3 : यदि आपकी सलाह से भगवान काम करने लगें तो आप उसे पहली सलाह क्या और क्यों देंगे?
उत्तर :   कई ऐसी राष्ट्रीय-अंतर्राष्टरीय समस्याएँ हैं जिनके लिए सलाह दी जा सकती है जैसे आतंकवाद, अशिक्षा, गरीबी, धर्मांधता, नस्लवाद बेरोजगारी तथा और भी कई, परंतु एक ही सलाह देना है इसलिए मैं सलाह दूँगा कि सभी लोग पृथ्वी के पर्यावरण की सुरक्षा को तत्पर हो जाएँ। यदि ये धरती ही नहीं रही तो क्या धर्म, क्या देश, क्या नस्ल और क्या संप्रदाय। सब बेमानी है। मनुष्य द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन से पारिस्थितिकीय संतुलन बिगड़ गया है। अनेक प्राणी और वनस्पतियाँ विलुप्त हो गई हैं या विलुप्ति की कगार पर हैं। हवा में इतना जहर है कि सांस लेना मुश्किल है। खेतों में इतना जहर डाला कि पैदा होने वाले अनाज में उसका असर है। इन्हीं अनाजों, फल, सब्जियों के सेवन से मनुष्य की धमनियों में रक्त के साथ साथ कीटनाशक भी दौड़ता है। गंगा हालत ऐसी कर दी है कि उसका जल पीना बीमारियों को आमंत्रण देना है। विकास के नाम पर या निजी स्वार्थ के लिए पेड़ों पर बेरहमी से कुल्हाड़ी चला दी जाती है। चिपको आंदोलन वाले सुंदरलाल बहुगुणा अब अप्रासंगिक हो गए हैं। वन क्षेत्र नष्ट होने से मौसम चक्र गड़बड़ा गया है। कभी अल्प वृष्टि तो कभी अति वृष्टि। धरती गरम हो रही है और ध्रुवों की बर्फ पिघल रही है। बहुत जल्दी तटीय इलाके जलमग्न हो जाएँगे। गंगा के डेल्टा पर स्थित सुंदरवन का क्षेत्रफल कम होता जा रहा है। सोचिए जरा! हम अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए क्या छोड़ कर जाएँगे। ऐसी धरती जहाँ पीने का पानी भी पर्याप्त न मिले तो क्या नई पीढ़ी हमें नहीं कोसेगी। इसलिए मैं भगवान को सलाह दूँगा कि सभी का मस्तिष्क ऐसा कर दे कि वह प्रकृति को नष्ट न करें। यदि पृथ्वी बची रही तो मानव इतना परिपक्व तो हो ही गया है कि शेष रहे अन्य मसले जैसे भाषा, प्रांतीयता, क्षेत्रवाद, धार्मिक कट्टरता, भ्रष्टाचार आदि मिल कर हल कर सकें।
 प्रश्न क्र. 4 यदि आपको किसी पत्रिका संपादक बना दिया जाए तो आप किन चिट्ठाकारों की रचनाएँ अपनी पत्रिका में प्रकाशित करेंगे?
 उत्तर :     इसका उत्तर देने पर निश्चित रूप से पिटाई होगी यदि वे चिट्ठाकार मुझ तक पहुँच जाएँ जिनके नाम मैं यहाँ न लिखूँ। इस प्रश्न का उत्तर देना मेरे लिए बहुत क‍‍ठिन है क्योंकि चिट्ठा जगत में विभिन्न विषयों के ज्ञाता हैं जो अपने विषय के अलावा अन्य विषयों पर भी बहुत अच्छा लिखते हैं। मैं इस लायक नहीं हूँ इन अग्रजों में से किसी का चयन करूँ।
 प्रश्न क्र. 5 यदि आपको जीवन का कोई एक दिन फिर से जीने को मिले तो वह कौन सा दिन होगा?
 उत्तर  :    जीवन की अच्छी बुरी कई घटनाएँ, कई दिन ऐसे हैं जिन्हें मैं फिर से जीना चाहूँगा। बहुत से सुखद क्षण हैं जिनके लिए सोचा जा सकता है कि वे लौट आएँ। सोने से मन वाला निर्मल निश्चिंत बचपन भी याद आता है, जब बच्चे की सारी फिक्र माता पिता करते हैं। या फिर कॉलेज के सुनहरे सपनीले दिन, ऐसा लगता था जैसे पंछी बन कर आकाश में उड़े चले जा रहे हैं, परंतु समय ही पंछी की तरह उड़ जाता है, ये कुछ साल तो क्षणिक स्वप्न से बीत गए।

नहीं ये सब नहीं, मैं 1998 की देवप्रबोधिनी एकादशी या देवउठनी एकादशी (हिन्दू पंचांग के अनुसार दीपावली के बाद ग्यारहवीं तिथि) का दिन किसी भी कीमत पर फिर से जीना चाहूँगा। उस दिन सुबह लगभग 5 बजे माँ ने आवाज़ देकर बुलाया, उस समय भाई दूज के लिए मेरी बड़‍ी बहन भी आई हूई थीं, हम दोनों भाई बहन नींद में चौंक कर माँ के पास पहुँचें तो देखा माँ उठ कर बैठी हुई हैं, उन्होंने बताया कि उनकी जबान अंदर की ओर खिंचती महसूस हो रही है। हमें उनकी बात बिलकुल साफ सुनाई दे रही थी इसलिए हमने माँ को समझाया कि ऐसा कुछ नहीं है, क्योंकि कुछ दिनों पहले उनके दाँतों में कुछ परेशानी हुई थी भोजन निगलने में भी समस्या हो गई थीश डॉक्टर ने बायोप्सी करने को कहा तो माँ ने लक्षणों के आधार पर सोच लिया था कि उन्हें कहीं गले का कैंसर न हो जाए और ऐसा कुछ हुआ नहीं था। अत: इस बार हमने सोचा कि कुछ नहीं होगा। उन्होंने हमारी बात मान भी ली। इस बार उनका इशारा था कि उन्हें पक्षाघात हो गया है या होने वाला है, यह सोच कर ही हम भाई-बहन भयभीत हो गए थे। इसके बाद माँ ने स्नान किया पूजन किया अपना फलाहार बनाया, ग्रहण किया। माँ को काम करते देख कर हम सोच रहे थे कि वे ठीक हैं। चूँकि उन्हें उच्च रक्तचाप और मधुमेह की शिकायत थी ‍इसलिए भी उन्हें कभी कभी चक्कर आ जाया करते थे इसलिए इस बार भी ऐसा ही मान लिया गया। दिन ढलने पर माँ को कमजोरी लगने लगी और शाम के समय मैं डॉक्टर को लेकर आया। डॉक्टर ने जाँच करके तुरंत भर्ती करने के लिए कह दिया। अब मेरे और दीदी के मन में घबराहट हुई। हम लोग माँ को लेकर हॉस्पिटल पहुँचे, वहाँ जाकर डॉक्टर ने बताया कि यह पैरेलिसिस का अटैक है, यदि इन्हें पहले चिकित्सा मिल जाती तो पूर्ण स्वस्थ हो सकतीं थीं अब कुछ कहा नहीं जा सकता। यह सुन कर मुझे और दीदी को काटो तो ख़ून नहीं। हमने स्वयं उन्हें इस ओर धकेला था। रात तक माँ कुछ भी बोल पाने में अक्षम हो गईं थीं। उन्हें 15 दिन तक हॉस्पिटल में रखा गया। बोली बंद हो जाने के कारण वे उनकी आवश्यकताएँ बताने में असमर्थ हो गईं थीं और हम भी उनके इशारे बड़ी कठिनाई से समझ पाते थे।

तीसरे दिन ही रात को 12 बजे के लगभग माँ ने अपने मुँह की ओर इशारा किया और कुछ बोलने का प्रयास किया। हमने यह अंदाज लगाया कि वे बता रही हैं कि वे बोल नहीं पा रही हैं और इससे उन्हें बैचेनी है। मैंने और दीदी ने ‍उन्हें दिलासा दिया कि जल्द ही वे बोल पाएँगी। इस पर उन्होंने मुँह की ओर फिर इशारा किया, बार बारा इशारा किया, हम बार बार उन्हें समझाते रहे। अब तो उन्होंने रोना शुरु कर दिया। हमने फिर समझाया कि उनके रोने से आस पास के कमरे के मरीजों को परेशानी होगी, उन्हें क़ाग़ज़ पेन दिया कि वे लिख कर समझा दें, पर लिखें कैसे दायाँ हाथ भी तो लकवे का शिकार था। खैर वे रो रोकर सो गईं। सुबह छ: बजे उनकी नींद खुली उस समय मेरे हाथ में पानी का गिलास था उसे देख कर उसकी इशारा किया। हमने उन्हें पानी दिया और अंदाजा लगाया कि रात को शायद माँ ने पानी ही माँगा होगा। फिर अपने आप को कोसा कि क्यों पानी का नहीं पूछा। माँ की पूरी तरह नहीं लौटी परंतु वे 20 से 30 दिन में तीन-चार साल के बच्चे की तरह तुतला कर बोलने लगीं। हमारे लिए यही बहुत था। लगभग दो माह में वे किसी के सहारे घर में चलने लगीं थी परंतु स्वयं कुछ भी करने मे सक्षम नहीं थीं और पूरी तरह दूसरों पर निर्भर हो गईं थी। उनका जीवन उनके पलंग और कमरे तक ही सीमित हो गया था। कई दुखी होकर वे तोतली भाषा में कहतीं थीं कि मैंने और दीदी ने उस दिन उन पर ध्यान नहीं दिया तो ये दिन देखना पड़ा। माँ ने इसी स्थिति में ढाई साल गुजारे और सन् 2001 में वर्ष प्रतिपदा (पुड़ी पड़वा) अर्थात हिन्दी नव वर्ष को परलोक सिधार गईं। आज मैं सोचता हूँ कि उस दिन यदि माँ की बात को गंभीरता से लिया होता तो आज शायद वे हमारे बीच होतीं।
इसीलिए मैं वर्ष 1998 की देवउठनी एकादशी का दिन फिर से जीना चाहूँगा ताकि मैं अपने इस घोर अपराध या पाप को सुधार सकूँ।

अपनी निजी बातें कुछ ज्यादा ही लिख गया, परंतु घुघूतीजी ने प्रश्न ही ऐसा कर लिया था कि भावनाएँ उमड़ पड़ीं। आशा है वे मुझे पास कर देंगी।

अब मैं किसे टैग करूँ? मैं किसी को टैग नहीं करना चाहता फिर भी मैं रवि रतलामीजी और सृजन शिल्पीजी से कुछ जानना चाहता हूँ।
रवि भैया आपके चिट्ठे से मैंने जितना आपके बारे में जाना है उससे पता चलता है कि आप मध्य प्रदेश राज्य विद्युत मंडल में इंजीनियर थे। मैं अदाज लगाता हूँ कि संभवत: आप इलेक्ट्रिकल के क्षेत्र से रहे होंगे। यदि किसी प्रकार की व्यावसायिक अड़चनें न हो तो मेरी जिज्ञासा यह है कि आप कंप्यूटर, सॉफ्टवेयर, इंटरनेट की ओर कैसे आए और आपने कैसे जाना कि हिन्दी में भी काम किया जा सकता है? चिट्ठा जगत से आपका परिचय और प्रवेश की कहानी भी जानना चाहता हूँ? 

   
इसके बाद सृजन शिल्पीजी – वे पत्रकारिता से जुड़े व्यक्ति हैं और उनकी पोस्ट उनके विशद् अध्ययन की व्याख्या करतीं हैं। मैं उनसे जानना चाहता हूँ कि आने वाले समय में संचार माध्यमों की तुलना में हिन्दी चिट्ठों का जनता पर क्या प्रभाव होगा? साथ ही यह भी कि उनके द्वारा लिखी जा रही नेताजी से संबंधित सभी पोस्ट्स क्या कभी पुस्तकाकार लेकर उन लोगों तक पहुँचेगी जो आने वाले समय में भी शायद इंटरनेट का प्रयोग न कर पाएँ.

केवल एक दिन महिलाओं के लिए?

Indian Woman

8 मई महिला दिवस है। विकसित कहे जाने वाले देश और समाज जैसे इंग्लैंड या अमेरिका में भी महिलाओं के साथ हिंसक घटनाएँ उनके पति या परिवार वालों के द्वारा ही होती रहतीं हैं। भारत में ‍इसकी जितनी ख़बरें छपतीं या प्रसारित होतीं हैं उससे कहीं अधिक नेपथ्य में रह जातीं हैं। पुराने जमाने में महिलाओं को उसके मृत पति के साथ जिंदा जला दिया जाता था (छुटपुट घटनाएँ आज भी हो जातीं है) तो आज लड़की को मार कर तंदूर में जला दिया जाता है और उसके अपराधी को सजा तक नहीं होती (अभी अभी हुई है)। बार में लड़की ने शराब देने से इंकार कर दिया तो गोली मार दी। तेरह वर्षीय अमीना को सत्तर साल के शेख के साथ बाँध दिया। कुछ सौ रुपयों में कमला को खरीदा जा सकता है। नशे की झोंक में तलाक दे दिया। पति लापता हो गया तो गुड़िया की शादी किसी और से कर दी (उससे पूछा भी नहीं होगा), जब पहला पति लौट आया तो समाज के ठेकेदार तय करने लगे कि अब गुड़िया किसके साथ रहेगी। गुड़िया क्यों नहीं फैसला कर सकती कि उसे किसके साथ रहना है। गुड़िया सवाल क्यों नहीं कर सकती कि उसकी शादी किसी से भी क्यों की जा रही है। ससुर ने बहू के साथ बलात्कार किया तो फतवा जारी हो गया कि महिला अब उसके पति के लिए हराम है। इन घटनाओं पर मीडिया ने मेहबानी दिखाई (अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए) और ये सामने आईं। देवदासी प्रथा बहुत कम हो गई है परंतु पूरी समाप्त नहीं हुई है। कुछ विशेष समाजों में परिवार की बड़ी लड़की को वेश्यावृत्ति करनी होती है और यह उनके समाज में मान्य भी है। कुछ समाजों में स्त्री को स्वयं को सच्चरित्र सिद्ध करने के लिए अग्नि परीक्षा देनी होती है। इसके लिए उबलते तेल में हाथ डालना होता है या हथेली पर पान का पत्ता रख कर उस पर लाल तपी हुई लोहे की सलाख रखनी होती है, यदि इस प्रक्रिया में स्त्री को कोई नुकसान नहीं होता तो उसे पवित्र मान लिया जाता है। अब कल्पना करें क्या ऐसा होता होगा? यह तो उनके जीवन में होने वाली घटनाएँ हैं, कई लोग तो लड़कियों को जन्म लेने से पहले ही मार देते हैं। क़ानून होने के बाद भी कई चिकित्सक भ्रूण लिंग परीक्षण करते हैं और घोषित करने की मोटी रकम लेते हैं। विषय और घटनाक्रम अनेक हैं जो लिखे जा सकते हैं।
हर साल की तरह इस बार भी समारोह होंगें, घोषणाएँ होंगीं, परिचर्चाएँ होंगीं और भाग लेने वाली महिलाएँ (पुरुष भी हो सकते हैं) होंगीं कोई नेता, फ़िल्म स्टार, किसी बड़े उद्योगपति या अधिकारी की पत्नी। लगभग इन सभी महिलाओं ने बचपन से लेकर वर्तमान समय तक शायद ही कभी ग्रामीण या निम्न वर्ग (आर्थिक रूप से, यहाँ जाति या समाज का संदर्भ न लें) की महिलाओं के जीवन को निकट से देखा होगा। गाँवों में स्त्रियाँ सुबह अँधेरे से उठ कर घर के सारे काम करके खेतों में भी पति के साथ मेहनत करती हैं और शाम को घर आकर फिर भोजन आदि घर के कार्यों में जुट जाती है। क्या केवल गाँवों में ही ऐसी स्थिति है, बिलकुल नहीं यह स्थिति किसी शहरी नौकरीपेशा मध्यमवर्गीय परिवार में भी मिल सकती है और श्रमिक वर्ग में भी। घरेलू हिंसा पर क़ानून बन गया पर भारतीय समाज का ताना बाना कुछ ऐसा है कि शायद कुछ ही महिलाएँ परिवार के सदस्यों के विरुद्ध क़ानून की मदद ले। भारत की वह तस्वीर बहुत भली मालूम होती है जिसमें कोई महिला वकील है, कोई डॉक्टर है, कोई पायलट है, कोई सेना में है, पुलिस में है, सॉफ़्टवेयर इंजीनियर है, ये है, वो है, सब कुछ है, हर क्षे‍त्र में है। परंतु इसका अनुपात उतना ही है जैसे किसी समुद्र में तैरते हिमखंड का पानी के ऊपर का भाग। उसका जो नब्बे प्रतिशत भाग पानी में रहता और नज़र नहीं आता, कमोबेश वही स्थिति इस चमकीले परिदृश्य से परे महिलाओं की है। अधिसंख्य लड़कियाँ विद्यालय का मुँह भी नहीं देख पाती। बहुतों को प्राथमिक और माध्यमिक के बाद विद्यालय छोड़ना पड़ता है, इनमें से अधिकांश का विवाह हो जाता है। इस समय इनकी उम्र अठाहर वर्ष से कम ही होती है। अधिकतर परिवारों में माता-पिता मजदूरी पर जाते हैं तो बड़ी लड़की को अपने छोटे भाई बहन को संभालने के लिए घर रहना होता है। ऐसे में स्कूल जाने का सवाल ही नहीं उठता। यदि लड़की भाई बहनों सबसे छोटी है तो शायद दो-चार साल विद्यालय जाए परंतु कुछ बड़ी होने पर वहाँ से निकाल लिया जाता है ताकि वह भी कुछ काम करे और घर की आय बढ़े। इतने बड़े परिवार के लिए सभी का काम करना भी जरूरी है क्योंकि माता-पिता को इतनी मजदूरी नहीं मिलती वे अपना परिवार चला सकें। इन बच्चियों का बचपन में ही विवाह हो जाता है और फिर वही चक्र शुरु हो जाता जिससे उनकी माँ गुजरी है। देश के हर भाग में लगभग हर समाज में ये समस्याएँ है जो आज भी मौजूद हैं हालाँकि इनमें कमी जरूर आई है। अनेक संस्थाएँ इस दिशा में काम कर रहीं हैं। महिलाओं का साक्षरता प्रतिशत पहले से बढ़ा है। एक दिन निश्चित रूप से ऐसी घटनाएँ इतिहास की बातें होंगीं और ये पंक्तियाँ भी-

अबला जीवन हाय तेरी यही कहानी
आँचल में है दूध और आँखों में पानी।

कहानी बदल रही है, बदलेगी।

होली की शुभकामनाएँ

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धार्मिकता या श्रम का अपमान

आज शनिवार है और उन्होंने सुबह सुबह उनके दरवाजे पर आए ‘शनि महाराज’ अर्थात् शनि का दान लेने वाले हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति को कटोरी भर तेल और कुछ सिक्कों का दान किया। यह काम वे हर शनिवार को नियम से करते हैं, कभी भूलते नहीं। आज भी ऑफ़िस के लिए निकलते समय ‘कालू’ के लिए घी की रोटी ज़रूर साथ में रखी। कालू नुक्कड़ पर मिलने वाला काला कुत्ता है। ज्योतिषी महाराज ने कहा था कि हर शनिवार को काली वस्तुओं का दान करें और काले कुत्ते को घी रोटी खिलाएँ तो उन पर छाई शनि की महादशा का समय बिना किसी कष्ट के निकल जाएगा। ऑफ़िस के रास्ते में पड़ने वाले शनि मंदिर पहुँच कर वहाँ भी बाहर लगी दुकान से तेल-फूल आदि पूजन सामग्री खरीदी और मंदिर में पहुँचे। बड़े भक्तिभाव से पूजन-अर्चन किया। कुछ मंत्र भी पढ़े जो उनके ज्योतिषी महोदय ने सिखाए थे। अब वे मंदिर के बाहर पंक्तिबद्ध बैठे भिखारियों को श्रद्धापूर्वक एक-दो रूपये देते जा रहे थे। अधिकतर भिखारी सक्षम थे और अपनी रोजी कमा सकते थे। दूर खड़ा नौ-दस साल का बालक उन्हें देख रहा था। उसे लगा ये साहब बड़े ही दयालु हैं। उसके मन में भी कुछ उम्मीदें जागीं। वह उनके पास गया और बोला, ” सा’ब पालिस…एकदम चमका दूँगा”, हाँ वह बालक जूते पॉलिश करके मेहनत से अपना पेट भरता था। उसकी आवाज़ सुनकर साहब की त्यौरियाँ चढ़ गईं। वे गुस्से से चिल्लाए, ”चल भाग यहाँ से… पता नहीं कहाँ से चले आते हैं सुबह सुबह… सारा मूड ख़राब कर दिया…”। बालक सहम गया और हैरानी से उन्हें देखता रहा जब तक कि वे आखों से ओझल न हो गए।

विक्रम वेताल और निठारी

तांत्रिक को फिर कोई मंत्र सिद्ध करना था। पहले इस काम के लिए महाराज विक्रम ने उसकी मदद की थी। विक्रम ने उसे वेताल लाकर दिया था। वेताल विक्रम के कंधे से चौबीस बार उतर कर वापस पेड़ पर जा लटका था और पच्च‍ीसवीं बार में विक्रम उसे पकड़ कर लाया था। हर बार अर्थात् पच्चीस बार बेताल ने विक्रम को कहानियाँ सुनाई इससे तांत्रिक की मंत्रसिद्धि में भी देर हो गई थी। विक्रम के आने पर तांत्रिक ने कहा, ”विक्रम मुझे एक बार फिर मंत्र सिद्ध करना है और इसमें तुम्हारी मदद की आवश्यकता है।” विक्रम ने उत्तर दिया, ”आप चिंता न करें, मुझे इस काम का अच्छा अनुभव है। पिछली बार भी वेताल मेरे पास से चौबीस बार भाग गया था। फिर भी मैं हिम्मत नहीं हारा और पच्चीसवीं बार में उसे लेकर आ ही गया था। जो कहानियाँ उसने मुझे उस समय सुनाईं थी वे आज पूरे विश्व में वेताल पच्चीसी के नाम से पढी जातीं हैं।” यह सुनकर तांत्रिक बोला, ”राजन्, इस बार कार्य कठिन है। पहले तो केवल एक वेताल की ही आवश्यकता थी, परंतु अब इस मंत्र सिद्धि के लिए मुझे 108 बच्चों की हड्डियों की आहूति देना है। क्या तुम ऐसा कर सकोगे?” इस पर विक्रम ने कहा, ”108 कोई बड़ी संख्या नहीं है, यह तो पहले से भी अधिक आसान कार्य है। ये तो बच्चे हैं, इन्हें तो कहानियाँ भी नहीं आती होंगी। आज इक्कीसवीं सदी के भारत में बच्चों की ‍हड्डियाँ लाना कोई कठिन काम नहीं है। सबसे पहले तो मै निठारी जाऊँगा, वहाँ पर बहुत स्कोप है। यदि वहाँ से पूर्ति नहीं होती है तो भारत में कहीं भी निकल जाऊँगा। बच्चों की हड्डियाँ तो सभी जगह मिल जाएँगी क्योंकि ये ही सबसे आसान शिकार हैं। घर में, स्कूल में, पास में, पड़ोस में, कहीं भी इन्हें  निशाना बनाया जा सकता है। कई बार घरों में तो कभी स्कूलों में इनकी निर्ममता से पिटाई होती है, जबकि इन मासूमों का का अपराध इतना बड़ा नहीं होता। यदि आपको मंत्र सिद्धि में कन्याओं की हड्डियाँ चाहिए तो ये और भी अधिक आसानी से उपलब्ध हो जाएँगी। वैसे तो भारत में कहा जाता है ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते ‍तत्र देवता’ अर्थात् जहाँ नारियों की पूजा होती है वहाँ देवता वास करते हैं, परंतु लोगों की करनी और कथनी में बहुत अंतर है। इस देश में किसी समय बालिका जन्मते ही उस पर चारपाई का पाया रख कर मार दिया जाता था। या उसके मुँह में नमक भर दिया जाता था। यदि कोई मार न सके तो कचरे में फेंकना सबसे आसान काम है। आज भी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से लड़कियों को जीने नहीं दिया जाता है। सबसे पहले तो यह पता करते हैं कि आने वाला शिशु लड़की है या लड़का। यदि लड़की है तो कोशिश होती है कि उसे इस दुनिया में ही नहीं आने दिया जाए। यदि कोई परिवार लड़की का गर्भ में आना न जान पाए तो उस बालिका के जन्मते ही उसकी उपेक्षा शुरु हो जाती है। उसे पोषक आहार नहीं मिल पाता है। उसकी समुचित देखभाल नहीं होती है। इसी के चलते कुछ कन्याओं का प्राणांत हो जाता है। यदि यह सख्त जान फिर भी बच निकले तो शादी के बाद जलाने की व्यवस्था भी तो है। इतनी जलालत से जीने के बाद लड़की प्राय: किसी कन्या की माँ बनना नहीं चाहती। मारने वाले लोग किसी बालिका को मारते समय भूल जाते हैं कि माँ, बहन, मौसी, मामी, काकी, दादी, नानी जैसे रिश्ते भी हैं। वे लोग सीता, दुर्गा, गायत्री, सरस्वती, लक्ष्मी आदि देवियों की उपासना करते हैं परंतु अपने घर किसी कन्या का जन्म नहीं चाहते। तांत्रिक महोदय, आप निश्चिंत रहें, निठारी के दैत्यों ने तो दूसरों के बच्चों को मारा। यहाँ तो लोग अपनी ही कन्या की जान ले लेते हैं। 108 तो कुछ नहीं मैं आपको 1008 बच्चों की हड्डियाँ तुरंत लाकर दे सकता हूँ।” इतना कह कर विक्रम निठारी की ओर प्रस्थान कर गया।

काश हमने इनकी क़द्र की होती

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ये हैं विजय कुमार, सेना की महू में स्थित इंफ़्रेंट्री स्कूल की आर्मी मार्क्समैनशिप यूनिट के नायब सूबेदार, जिन्होंने दोहा एशियाड में 25 मीटर सेंटर फ़ायर पिस्टल स्पर्धा में समरेशजंग और यशपाल राणा के साथ टीम का स्वर्ण जीता था। इनके इंदौर आगमन पर इनकी अगवानी इस प्रकार हुई। (हम इंदौरवासी इसके लिए शर्मिंदा हैं) इनके लिए किसी भी खेल अधिकारी, प्रादेशिक खेल मंत्री, पक्ष-विपक्ष के किसी भी नेता ने स्टेशन तक आने का कष्ट नहीं उठाया। हालाँकि ऐसा कोई प्रोटोकॉल नहीं है, परंतु यदि यह किसी नेता का आगमन होता तो क्या ऐसा होता? वैसे नेताओं की बात पिछली पोस्ट में हो चुकी है, मैं कहना चाहता हूँ कि यदि विजय कुमार की जगह कोई क्रिकेट खिलाड़ी कोई कप, ट्रॉफ़ी या मैच जीत कर आया होता तो भी क्या ऐसा होता? क्रिकेट खिलाड़ियों को हमने भगवान मान लिया है। वे कैसा भी प्रदर्शन करते रहें, हम उन्हें कुछ दिन कोस कर फिर उन्हीं के गुणगान करते नज़र आएँगे। क्रिकेट के खेल में यदि ख़राब प्रदर्शन होता है तो भारत की जनता ऐसा व्यवहार करती है जैसे देश का भविष्य अंधकारमय हो गया हो और यदि कोई जीत हुई है तो पूरे देश में दीवानगी की सारी हदें पार हो जातीं हैं। मुझे याद है जब 1999 में देश ने कारगिल संकट का सामना किया था उसी समय क्रिकेट विश्व कप भी चल रहा था। जब तक मैच चलते रहे तब तक देश के जवानों ने सरहद के जवानों की कोई ख़बर नहीं ली जैसे ही फ़ाइनल मैच का समापन हुआ तो लगा कि कुछ देशभक्ति का काम भी कर लें, और फिर देश भर में पाक विरोधी प्रदर्शनों का तांता लग गया। जो जितने जोर से नारा लगाता उसकी देशभक्ति उतनी अधिक और सशक्त। इस खेल की लोकप्रियता ऐसी है कि देश के हर गली-मोहल्ले में बच्चे मोगरी (या मुंगरी जिससे कपड़े कूट कर धोए जाते हैं, यह क्रिकेट बैट जैसी ही होती है) लेकर स्वयं को सचिन, सौरव या सहवाग से कम नहीं समझते। विकेट के लिए कोई सायकल खड़ी कर ली जाती है, या फिर दीवार पर कोयले से विकेट बना लिए जाएँ तो विकेट कीपिंग की भी ज़रूरत नहीं। गेंद के पीछे दौड़ते बच्चे इधर-उधर कुछ नहीं देखते और किसी स्कूटर चालक से टकरा जाते हैं, अब ग़लती किसी की भी हो देश की युवाशक्ति स्कूटर चालक की ही पिटाई करती है। क्रिकेट के लिए ही हमारे सांसदों को भी दु:ख होता है (दूसरे खेलों की कोई चिंता नहीं), इस पर कोच ग्रेग चैपल कह देते हैं कि भई इन्हें तो प्रश्नकाल में प्रश्न उठाने के लिए पैसा मिलता है। ग़लत भी क्या है जब हम यह सब जानते हैं तो चैपल साहब को भी यह जानकारी तो होगी ही।
यहाँ बात किसी भी प्रकार से क्रिकेट या क्रिकेट खिलाड़ियों के विरोध की नहीं है। मुद्दा यह है कि यदि इतना ही ख़याल हमने दूसरे खेल और खिलाड़ियों का रखा होता तो हम किसी भी एशियाड या ओलंपिक में गिन-चुने 10-15 पदक लेकर नहीं लौटते। एशियाड में फिर भी पदक तालिका में भारत का नाम प्रथम देशों आ जाता है, परंतु ओलंपिक में कभी कभी एक कांस्य पदक के भी लाले पड़ जाते हैं। एक अरब की आबादी वाले देश के लिए यह बड़े ही शर्म की बात है। एशियाड में केवल चीन ही क्षेत्रफल और जनसंख्या में हमसे बड़ा देश था। बाकी देश ऐसे थे कि सब मिलकर भी भारत और भारतवासियों के बराबर नहीं हो सकते। छोटा सा जापान हमसे कहीं आगे होता है। क्रिकेट टीम के एक एक खिलाड़ी की पूरी कुंडली सभी को मुँहज़बानी याद रहती है, परंतु भारतीय कबड्डी टीम के किसी खिलाड़ी का नाम शायद ही कोई बता सके या कोनेरु हंपी कौन है ये शायद ही तथाकथित क्रिकेट प्रेमियों को मालूम हो (अपवाद हो सकते हैं)। ऐसा नहीं है कि देश में प्रतिभाओं की कमी है। हमारे देश में बुधिया जैसे बच्चे भी हैं (यद्यपि यह अमानवीय है)। इस एक बुधिया को इतना मीडिया कवरेज भी संभवत: प्रशिक्षक की प्रसिद्धि पाने की लालसा से मिला। अन्यथा ऐसे कितने ही बालक-बालिकाओं की प्रतिभा विद्यालयों में खेल शिक्षकों, बाद में प्रशिक्षकों, अधिकारियों, नेताओं के दुष्चक्र में खो जाती है। क्या कभी हम निजी स्वार्थ से ऊपर उठ कर उचित व्यक्ति को प्रशिक्षित कर उसे खेल आयोजनों में भेजेंगे?  क्या हम कभी क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों के खिलाड़ियों को भी देश का हीरो समझेंगें? क्या हम दूसरे खिलाड़ियों को भी उतना प्रेम और सम्मान देंगें जो हम क्रिकेट खिलाड़ियों को देते आए हैं? आखिर ये भी तो हमारे देश का नाम रोशन करते हैं, क्या आपको नहीं लगता?

गाँधीगिरी ऐसी भी

अक्तूबर माह में इन्दौर में एक अनोखे ढंग से विरोध प्रकट किया गया। जैसा कि संभवत: पूरे भारत में प्रचलन है शहर में किसी नेता के आगमन पर विभिन्न स्थानों पर यातायात को नज़रअंदाज कर सैकड़ों होर्डिंग्स लग जाते हैं। ऐसा ही इन्दौर में भी आए दिन होता रहता है, केवल होर्डिंग्स ही नहीं स्वागत द्वार भी खड़े किए जाते हैं। बरसाती कुकुरमुत्तों की तरह कई स्वागत समितियाँ पैदा हो जाती हैं। आने वाले बड़े नेता को यह बताता जरूरी हो जाता है कि प्रभुजी हम भी आपके पीछे पीछे हैं, हमारा ध्यान रखना। स्वागत की प्रक्रिया अन्य पार्टियों के सामने शक्ति प्रदर्शन भी होती है। जिस समय जुलूस निकलता है तब तो यातायात बिगड़ता ही है परंतु इन बेतरतीबी से उगे स्वागत द्वार और होर्डिंग्स से आम जनता वैसे भी त्रस्त रहती है। वह किसी से शिकायत भी नहीं कर सकती क्योंकि उसे मालूम है कि कहीं सुनवाई नहीं होने वाली। यहाँ तक कि नगर निगम और पुलिस प्रशासन भी ऐसे कामों में हाथ नहीं डालते। क्योंकि ये लोग भी जानते हैं कि उनके द्वारा उठाया गया कोई कदम उन्हें ही संकट में डाल सकता है, और फिर वे भी इस तंत्र का ही एक ‍हिस्सा हैं। ऐसा केवल स्वागत में ही नहीं बल्कि इस जनप्रतिनिधियों के जन्मदिवस पर भी होता है। विभिन्न जन्मदिन मनाओ समितियाँ अपना कर्त्तव्य पूरा करने कोई कसर नहीं रखतीं। स्वागत और जन्मदिन पर लगने वाले होर्डिंग्स, स्वागत द्वार, पोस्टर आदि कम से कम एक दिन पहले से लग जाते हैं फिर इनके हटाए जाने का कोई काम नहीं। ये होर्डिंग्स लंबे समय तक धूल, धूप, धुआँ, पानी झेलते रहते हैं, नेताजी के चेहरे का रंग उड़ जाता है, जनता कुढ़ती रहती है, बचती-बचाती अपनी राह चल देती है। चूँकि जनता इन्हें शीश नहीं नवाती इसलिए कभी-कभी ये होर्डिंग्स ही किसी के शीश पर अवतरण कर लेते है। ऐसे ही किसी त्रस्त व्यक्ति ने इन सबके विरोध का एक नया तरीका ढूँढ निकाला। कहते हैं कि जहर जहर को मारता है, इसलिए उसने भी एक होर्डिंग लगाया, शहर के हृदयस्थल राजवाड़ा पर। शहर के सभी प्रमुख समाचारपत्रों ने इसका चित्र छापा। देखते ही देखते नगरनिगम और पुलिस प्रशासन ने तत्परता से कई होर्डिंग्स आदि हटवा दिए। कुछ जनप्रतिनिधियों ने स्वयं अपने कार्यकर्त्ताओं को भेज कर ये सभी चीज़ें हटवाईं। होर्डिंग ऐसा था कि दो दिन लगे रहने के बाद ही किसी ने उस फाड़ दिया। होर्डिंग में क्या था यह आप स्वयं नीचे देख लीजिए…    

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नज़रिया

वे स्त्री स्वातंत्र्य पर व्याख्यान देकर लौट रहीं थीं। वे शहर के गर्ल्स कॉलेज में प्रोफ़ेसर हैं। अभी अभी उम्र के तीन दशक पार किए हैं। वर्तमान में वे भारतीय समाज में स्त्री की दशा पर एक शोध ग्रंथ लिख रही हैं। अपने स्टाफ़ में वे एक दबंग और स्वाभिमानी महिला के रूप में जानी जाती हैं। उनके ओजस्वी भाषण की बहुत तारीफ़ हुई, शहर का मीडिया भी अख़बारों के अगले दिन के संस्करण के लिए उनकी प्रशंसा की तैयारी कर चुका था। उन्होंने आज की नारी की आज़ादी के लिए ज़ोरदार वक्तव्य दिया। उन्होंने कहा कि आज नारी पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिला कर हर क्षेत्र में भागीदारी कर रही है। कल्पना चावला, सानिया मिर्जा आज की हर लड़की की आदर्श हैं। आज हर स्त्री अपने निर्णय स्वयं लेने के लिए स्वतंत्र है, फिर चाहे बात उसके पढ़ाई-सर्विस की हो या शादी की। ये इक्कीसवीं सदी है और औरत अपनी बेड़ियाँ तोड़ चुकी है। उस पर किसी प्रकार का कोई बंधन नहीं है – न घर में न बाहर। वह अपना जीवन स्वयं की इच्छानुसार जी सकती है। अपने शब्दों और तालियों की गड़गड़ाहट में खोई वे अपने घर कब पहुँच गईं पता ही नहीं चला। घर के आँगन में उनकी हमउम्र भाभी झाड़ू लगा रही थीं। वे भी उच्च शिक्षित थीं और वि‍वाह के पहले बैंक में कैशियर के पद पर कार्यरत थीं। घर वालों की तथाकथित इज्जत, कि बहू घर के बाहर काम नहीं करेगी, के लिए उन्होंने अपनी अच्छी-भली बैंक की नौकरी कुर्बान की थी। जैसे ही प्रोफ़ेसर महोदया की कार ने आँगन में प्रवेश किया, भाभी को देख उनका पारा सातवें आसमान पर जा पहुँचा। वे बुरी तरह से चीखीं, ‘माँऽऽऽऽऽऽ ओ माँऽऽऽऽऽ देखो तो भाभी को! यहाँ आँगन में खुल्लेऽऽ सिर घूम रही है… लाज शरम सब बेच खाई है… ऐसे कैसे सिर से पल्ला खिसक जाता है… इसके तो सिर में एक खूँटी ठोक दो तो उसपे साड़ी अटकी रहेगी’।